卐 सत्यराम सा 卐
रस ही में रस बरषि है, धारा कोटि अनंत ।
तहाँ मन निश्चल राखिये, दादू सदा बसंत ॥
घन बादल बिन बरषि है, नीझर निर्मल धार ।
दादू भीजै आत्मा, को साधु पीवनहार ॥
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साभार ~ नरसिँह जायसवाल ~
सतगुरु हमसों रीझि कै, कह्यो एक परसंग।
बरषै बादल प्रेम को, भींजि गया सब अंग ॥
कबीरदास कहते हैं कि एक बार सदगुरुदेव ने प्रसन्न होकर एक प्रसंग बतलाया, जिसका वर्णन शब्दों में नहीं किया जा सकता। वह प्रसंग क्या था ?
इसी को उजागर करते हुए कबीरदास कहते हैं कि भक्त्त के हृदय में प्रेमवृष्टि हुई और उसका तन, मन भींग गया। यहां प्रतीकार्थ यह है कि जब भक्त्त या शिष्य को गुरुकृपा से आत्मबोध हुआ तो वह निहाल हो गया।
संत कबीरदास !
सौजन्य -- १००८ कबीरवाणी ज्ञानामृत !
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