बुधवार, 17 फ़रवरी 2016

= ६५ =

卐 सत्यराम सा 卐
साचे साहिब को मिले, साचे मारग जाइ ।
साचे सौं साचा भया, तब साचे लिये बुलाइ ॥ 
दादू साचा साहिब सेविये, साची सेवा होइ ।
साचा दर्शन पाइये, साचा सेवक सोइ ॥ 
साचे का साहिब धणी, समर्थ सिरजनहार ।
पाखंड की यहु पृथ्वी, प्रपंच का संसार ॥ 
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साभार ~ Pannalal Ranga ~ 
भागवत कथा प्रारंभ हुई। व्यासपीठ पीठ पर विराजमान कथावाचक प्रथम श्लोक ‘‘सच्चिदानंद रूपाय विश्वोत्पत्यादि हेतवे, तापत्रय विनाशाय श्रीकृष्णाय वयं नुमः’’ के प्रथमाक्षर सत् का विस्तार से विश्लेषण कर रहे थे पहले दिन पूरे 3 घंटे उन्होंने सत् और सत्य पर व्याख्यान देते हुए अंत में कहा- ‘‘सत्य परेशान कितना भी हो, किन्तु कभी पराजित नहीं होता।’’ श्रोताओं में एक शातिर चोर भी बड़े मनोयोग से सुन रहा था, उसे कथावाचक के सद्वचन मंत्रवत् लगे और उसने वहीं संकल्प लिया -‘‘अब मैं सदैव सत्य ही बोलूंगा।’’ प्रसाद पाया और घर गया। 
रात होते ही भी वह चोरी के लिए निकला। सत्यसंकल्प के साथ वह आज राजमहल में चोरी करने चला। वह धड़ल्ले से मुख्य द्वार पर गया। द्वारपाल ने रोका-‘‘कहां जा रहा है?’’ ‘‘चोरी करने’’ सुनकर द्वारपाल ने सोचा - ‘‘निश्चित ही यह राजा का खास आदमी होगा। भला चोर ऐसा नहीं बोलता’’ फिर कहा- ‘‘अंदर जाइये।’’ वह आगे बढ़ा- दूसरे आरक्षी ने पूछा-‘‘आप कौन है?’’ उसने कहा- ‘‘चोर।’’ इस आरक्षी ने भी सत्य को असत्य मानकर राजा का निकटस्थ माना और अंदर जाने दिया। वह बेखटके तिजोरी के पास पहुंचा और तिजोरी तोड़ने लगा। खटपट की आवाज सुनकर कोषाधिकारी आ गया और पूछा- ‘‘क्या कर रहे हो?’’ वह बोला- ‘‘चोरी।’’ कोषाधिकारी ने भी सत्य को असत्य मानकर राजा का नजदीकी माना और ताला खोल दिया। उसने माल निकाला और पोटली बांधकर उसी रास्ते से चल दिया। पोटली लेकर जा रहे चोर को देखकर आरक्षी व द्वारपाल ने समझा- ‘‘राजा साहब ने उपहार दिया होगा, जो ले जा रहा है।’’ 
सुबह हुई राजकोष खाली देखकर चोरी का हंगामा मचा। राजा ने मंत्रिमंडल की बैठक बुलाई, जिसमें लिए गये निर्णय के अनुसार मुनादी कराई गई- ‘‘राजकोष में हुई चोरी का सुराग देने वाले को 10 लाख स्वर्ण मुद्रायें दी जायेंगी।’’ मुनादी सुनकर चोर ने सोचा- ‘‘ये माल अनैतिक है, इसके बदले मिलने वाली स्वर्णमुद्रायें न्यायोर्जित संपदा होगी।’’ वह राज दरबार में गया। बोला- ‘‘मैने चोरी की है, और ये रहा पूरा माल।’’ राजा सहित समूचा मंत्रिमंडल हैरत में पड़ गया। राजा ने पूछा- ‘‘तुम किस तरह तिजोरी तक पहुंचे और वापस निकले?’’ उसने पूरा वाकया अक्षरसः कह सुनाया। द्वारपाल से लेकर कोषाधिकारी तक सभी सिर झुकाये, अकर्मण्यता सिद्ध कर रहे थे। राजा ने सभी को कारागार में डाल दिया औ सत्यनिष्ठा के लिए संकल्पित चोर को पुरस्कार के रूप में 10 लाख स्वर्ण मुद्रायें प्रदान करने के साथ ‘‘महामंत्री’’ के पद पर बिठा दिया। 
सत्यनिष्ठा का प्रताप देखकर चोर से महामंत्री बना वह व्यक्ति दूसरे दिन कथावाचक को धन्यवाद देने भागवत् कथा पंडाल में गया। उसने पंडितजी के पैर पकड़ लिए। बड़े तामझाम से आये महामंत्री की विवनम्रता देख कथावाचक ने पूछा- ‘‘क्या हुआ मंत्रीजी!’’ 
‘‘अरे महाराज कल मैं चोर था, पीछे बैठकर कथा सुन रहा था, सत् और सत्य पर आपके व्याख्यान को सुनकर मैंने सत्य ही बोलने का संकल्प लिया है। उसीके प्रताप से 24 घंटे के अंदर चोर से महामंत्री बन गया?’’ सुनकर पंडितजी ने पूछा- ‘‘कैसे?’’ उसने पूरा वृत्तान्त कह सुनाया। 

कथावाचक बोला- ‘‘मैं केवल कहता हूं, इसीलिए जहां का तहां हूं।’’

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