बुधवार, 17 फ़रवरी 2016

= ६४ =

卐 सत्यराम सा 卐
विरहनी को श्रृंगार न भावे, 
है कोई ऐसा राम मिलावे ॥ टेक ॥
विसरे अंजन मंजन चीरा, 
विरह व्यथा यहु व्यापै पीरा ॥ १ ॥
नव-सत थाके सकल श्रृंगारा, 
है कोई पीड़ मिटावनहारा ॥ २ ॥
देह गेह नहीं सुधि शरीरा, 
निशदिन चितवत चातक नीरा ॥ ३ ॥
दादू ताहि न भावे आन, 
राम बिना भई मृतक समान ॥ ४ ॥
=======================
साभार ~ Anand Nareliya

osho यह सवाल सदियों से पूछा जाता रहा है कि बुद्ध को बुद्धत्व कैसे मिला? छह वर्ष की तपश्चर्या के कारण मिला या तपश्चर्या के त्याग से मिला?
जो ऐसा प्रश्न पूछते हैं, उन्होंने प्रश्न को गलत ढंग दे दिया। शुरू से ही गलत ढंग दे दिया। उनको जो भी उत्तर मिलेंगे, वे गलत होंगे। अगर गलत प्रश्न पूछा, तो गलत उत्तर पा लोगे। प्रश्न ठीक होना चाहिए।

जब तुमने यह पूछ लिया कि बुद्ध को छह वर्ष की तपश्चर्या से मिला? क्योंकि मिला छह वर्ष के बाद एक रात। या उस सांझ को उन्होंने तपश्चर्या छोड़ दी थी, उसी रात घटना घटी! छह वर्ष की तपश्चर्या है और उसी रात तपश्चर्या का त्याग भी किया। मिला क्यों? मिला कैसे? क्या कारण है? तपश्चर्या कारण है या उस रात तपश्चर्या का छोड़ देना कारण है?

मैं तुमसे कहूंगा, दोनों कारण हैं। तपश्चर्या न की होती, तो छोड़ते क्या खाक! छोड़ने के पहले तपश्चर्या होनी चाहिए। जैसे कोई गरीब आदमी कहे कि सब त्याग कर दिया। इसके त्याग का क्या अर्थ होगा? हम पूछेंगे. तेरे पास था क्या? वह कहे. था तो मेरे पास कुछ नहीं। लेकिन सब त्याग कर दिया। इसके त्याग का कोई मूल्य नहीं है। कोई सम्राट त्यागे, तो मूल्य है। जब कुछ था ही नहीं, तो त्याग क्या किया है? होना चाहिए त्यागने के पहले।

बुद्ध ने तपश्चर्या छोड़ी, क्योंकि तपश्चर्या की थी। तुम ऐसे ही अपनी आराम कुर्सी पर लेट जाओ और कहो कि चलो, आज हमने तपश्चर्या छोड़ दी। हो जाए बुद्धत्व का फल! आज की रात लग जाए। फिर तुम थोड़ी देर में बैठे —बैठे थकने लगोगे कि कुछ नहीं हो रहा है! आंख खोल—खोलकर देखोगे कि अभी तक बुद्धत्व आया नहीं! करवट बदलोगे। फिर थोड़ी देर में सोचोगे कि अरे! यह सब बकवास है। ऐसे कुछ होने वाला नहीं है। हमें तो पहले ही मालूम था कि कुछ होता—जाता नहीं है। फिर भी एक प्रयोग करके देख लिया।

फिर उठकर अपना रेडियो चलाने लगोगे, या टी वी शुरू कर दोगे। या अखबार पढ़ने लगोगे। या चले क्लब की तरफ! कि चलो, दो हाथ जुए के खेल आएं। कि शराब ढाल लो!

वह जो छह वर्ष की तपश्चर्या है, वह अनिवार्य हिस्सा है। उसके बिना नहीं घटता। और मैं तुम्हें यह भी याद दिला दूं कि अगर बुद्ध उसी तपश्चर्या में लगे रहते साठ साल तक, तो भी नहीं घटता।

एक चरम सीमा आ जाती है करने की, जहां करने की चरम सीमा आ गयी, वहां करने को भी छोड़ देना जरूरी है। पहले कर्म को चरम सीमा तक ले आना है, सौ डिग्री पर उबलने लगे कर्म, फिर कर्ता के भाव को भी विदा कर देना। ये दोनों बातें सच हैं।...osho

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें