रविवार, 14 फ़रवरी 2016

= विन्दु (२)६८ =

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*#श्रीदादूचरितामृत*, *"श्री दादू चरितामृत(भाग-२)"*
लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज,
पुष्कर, राजस्थान ।*
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*= विन्दु ६८ =*
*= दादूजी और मानसिंह का संवाद =*
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*पवन-संस्कार ~*
"हरि भज साफल जीवना, पर उपकार समाय ।
दादू मरणा तहँ भला, जहँ पशु पक्षी खाय॥ "
पवन संस्कार से शव को पशु पक्षी खा कर तृप्त होते हैं । इसी से संत वहां मरणा अच्छा मानते हैं जहां शव को पशु पक्षी खा सकें । इससे पशु पक्षियों का उपकार होता है । और प्राणी का जीवन सफल भी, हरि भजन और परोपकार से ही होता है । इससे पवन संस्कार अति उत्तम है । मैदान में शव को रख कर पशु पक्षियों को खिलाना ही पवन संस्कार है ।
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*विरह-संस्कार ~*
"विरह अग्नि का दाग दे, जीवित मृतक गोर ।
दादू पहले घर किया, आदि हमारी ठौर ॥
दादू मारे प्रेम से, तिन को क्या मारे ।
दादू जारे विरह के, तिन को क्या जारे ॥"
विरह अग्नि में शरीर को जलाये तब जीवित भी मृतक के समान हो जाता है । उसके लिये वह विरह ही कब्र बन जाती है । हमने भी जो पहले परमात्मारूप हमारा आदि स्थान था, उसे ही विरह के द्वारा अपना बना लिया है । जो प्रेम के मारे हुये हैं, उनको क्या मारना है और जो विरह के जलाये हुये हैं, उनको क्या जलाना है । इससे सिद्ध होता है एक संस्कार विरह भी है । वियोग से व्यथित होना ही विरह संस्कार कहलाता है; विरह अग्नि में कोई विरला ही संत जलता है । कृष्ण के विरह में गोपियां और कुन्ती जली थीं ।
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*ज्ञान-संस्कार ~*
"काया सूक्ष्म कर मिले, ऐसा कोई एक ।
दादू आतम ले मिले, ऐसे बहुत अनेक ॥ "
आत्मा को सांसारिक जड़ प्रपंच से ऊपर लेकर अर्थात् भिन्न समझकर ब्रह्म ज्ञान द्वारा ब्रह्म में मिलने वाले तो ज्ञानी बहुत हुये हैं किंतु स्थूल शरीर को सूक्ष्म करके ब्रह्म में मिलने वाला कोई विरला ही महापुरुष होता है । पीछे शरीर संस्कार के लिये नहीं रहता, इसी को संत ज्ञानरूप अंतिम संस्कार कहते हैं । इस स्थिति को कबीर जी के समान कोई विरला ही संत प्राप्त करता है ।
(क्रमशः)

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