रविवार, 14 फ़रवरी 2016

= ज्ञानसमुद्र(द्वि. उ. ३४-५) =

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स्वामी सुन्दरदासजी महाराज कृत - श्रीसुन्दर ग्रंथावली
संपादक, संशोधक तथा अनुवादक ~ स्वामी द्वारिकादासशास्त्री
साभार ~ श्री दादूदयालु शोध संस्थान, अध्यक्ष ~ गुरुवर्य महंत महमंडलेश्वर संत १०८ स्वामी क्षमारामजी महाराज
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*= ज्ञानसमुद्र ग्रन्थ ~ द्वितीय उल्लास =*
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*अथ आत्मनिवेदन(९) ~ कुण्डली१*
*प्रथम समर्पन मन करै, दुतिय समर्पन देह ।*
*तृतीय समर्पन धन करै, चतु: समर्पन गेह ॥*
*गेह दारा धनं । दास दासी जनं ।*
*बाज हाथी गनं । सर्व दै यौं भनं ॥*
*और जे मे मनं । है प्रभु ते तनं ।*
*शिष्य बाँनी सुनं । आतमा अर्पनं ॥३४॥*
{१- दोहा के साथ विमोहा(दो रगण का) छन्द जो़डा है, रोला या उल्लाला छन्द नहीं लगाया । विमोहा को स्वामीजी चन्दाना लिखते हैं यह भी एक प्रकार का कुण्डलिया है ।}
{समर्पण(आत्मनिवेदन) भक्ति का वर्णन -} समर्पण-भक्ति चार प्रकार की होती है । पहले मन को भगवान के समर्पण करैं, दूसरे अपने शरीर को, तीसरे अपने धन को, चौथे अपने समग्र घर बार को अपना स्वत्व त्याग कर भगवान् के समर्पित कर दें । घर बार से हमारा तात्पर्य है- तुम्हारे पास जो कुछ भी संग्रह है, स्त्री, पुत्र, धन, घोडा, हाथी, धन, दास-दासी आदि कर्म कर सब कुछ भगवान् को अर्पित कर यों निवेदन करना चाहिये- “हे प्रभो ! इसके अतिरिक्त मेरे मन में जिस किसी द्रव्य के विषय में ममत्व हो, वह आपका ही है” । हे शिष्य ! भगवान् के प्रति सर्वतोभावेन ही समर्पण भाव ही आत्मनिवेदन नामक भक्ति है ॥३४॥
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*दोहा*
*नबधा भक्ति सु यह कही, भिन्न भिन्न समुझाइ ।*
*याकौ नाम कनिष्ट है, शिष्य सुनहिं चित लाइ ॥३५॥*
हे शिष्य ! इस प्रकार यह नवधा भक्ति अलग-अलग विस्तार से तुम्हें समझा दी है । इसी नवधा भक्ति को विद्वान लोग ‘कनिष्ठा भक्ति’ कहते हैं- यह तुम्हें ध्यान में रखना चाहिये ॥३५॥
इति नवधा भक्ति
(क्रमशः)

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