शनिवार, 13 फ़रवरी 2016

= गुरुदेव का अंग =(१/६७-६९)

॥ दादूराम सत्यराम ॥ 
"श्री दादू अनुभव वाणी" टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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= श्री गुरुदेव का अँग १ =
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दादू मन माला तहं फेरिये, जहं प्रीतम बैठे पास ।
आगम गुरु तैं गम१ भया, पाया नूर निवास ॥६७॥
मन की माला बना कर जिस निर्विकल्पावस्था में प्रियतम प्रभु स्थित है, सँकल्प - विकल्प से रहित होकर उसके पास ही फेरना चाहिये । ऐसा करने से ही वेदादि शास्त्र जिसका वर्णन करते हैं उस परमेश्वर के स्वरूप में गुरु कृपा से हमारा प्रवेश१ हुआ है और अब हमने अपने शुद्ध चेतन स्वरूप में निवास प्राप्त कर लिया है ।
दादू मन माला तहं फेरिये, जहं आपै एक अनन्त ।
सहजैं सो सद्गुरु मिल्या, जुग - जुग फाग वसँत ॥६८॥
जिस निर्विकल्पावस्था में सजातीय, विजातीय, स्वगत भेद से रहित अपार अपना ही स्वरूप है वहां ही मन को सँकल्प - विकल्प से रहित करके चिन्तन करना चाहिए । ऐसा करने से ही हमें सद्गुरु - कृपा से वह अद्वैत अनन्त अपना स्वरूप सहज ही प्राप्त हो गया है । अब हम उसके साथ निरँतर सहजावस्था रूप वसन्त में ब्रह्मानन्द का अनुभव रूप फाग खेलते हैं ।
दादू सद्गुरु माला मन दिया, पवन सुरति सूँ पोइ ।
बिन हाथों निश दिन जपै, परम जाप यूँ होइ ॥६९॥
सद्गुरु ने मन - मणिया को वृत्ति द्वारा श्वास - प्रश्वास रूप धागे में पिरोकर बिना ही हाथों से वृत्ति द्वारा ही अजपा - जाप जपने का उपदेश दिया है । हम भी वृत्ति से ही निशि दिन अजपा - जाप जपते हैं । उत्तम जाप इसी प्रकार होता है ।
(क्रमशः)

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