शुक्रवार, 12 फ़रवरी 2016

= ५३ =

卐 सत्यराम सा 卐
महा अपराधी एक मैं, सारे इहि संसार ।
अवगुण मेरे अति घणे, अन्त न आवैं पार ॥ 
बे मर्यादा मित नहीं, ऐसे किये अपार ।
मैं अपराधी बापजी, मेरे तुम्हीं एक अधार ॥ 
दोष अनेक कलंक सब, बहुत बुरे मुझ मांहि ।
मैं किये अपराध सब, तुम तैं छाना नांहि ॥ 
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हे नाथ ! हमारी कैसी स्थिति दयनीय स्थिति हो गयी है कि तुम्हारी कृपा की तनिक सी भी अनुभूति होते ही हम अपने आपको ज्ञानी और सर्वोत्कृष्ट समझने लगते हैं और येन-केन-प्रकारेण सभी को बताने लगते हैं कि हमने क्या पाया है ! हम कैसे भक्त हैं ! हमने पा लिया अब तुम्हें भी प्राप्त करा सकते हैं, बस हम जो कहें सो करो। 
उनकी कृपा को आत्मसात करते हुए अपनी जीवनचर्या में सुधार करना तो दूर, हम सबके सुधार की चेष्टा करने लगते हैं। हे नाथ ! स्वय़ं का स्वयं से ही कैसा अदभुत कपट ! ढोंग-पाखन्ड को हम शस्त्र के रुप में प्रयोग करने लगते हैं। बात-बात में गीता के उपदेशों और शास्त्रों का हवाला देने वाले हम स्वयं को किसी कसौटी पर क्यों नहीं कसते ? समाज के लिये हम अपनी एक सर्वगुण संपन्न छवि रच देते हैं जिससे अन्य भी हमारे छलावे पर उसी प्रकार विश्वास करें जैसा हमारी "बुद्धि" चाहती है। हम "मान-अपमान" से परे की बात करते हैं पर सत्य तो यह है कि "मान" न मिले तो उसका दोष भी दूसरों पर डाल देते हैं कि इनकी अभी "आध्यात्मिक स्थिति" उन्नत नहीं है और ये "दया" के पात्र हैं। मेरे नाथ ! यह तो तुम्हीं को ज्ञात है कि दया का पात्र "वे" न होकर "मैं" ही हूँ जिसने अपना इतना पतन कर लिया है कि प्रेम का स्थान ईर्ष्या और द्वेष ने ले लिया है।
हे नाथ ! पतन के इस कूप में गिर जाने के बाद भी यह तुम्हारी ही अहैतुकी कृपा है कि यदा-कदा तुम्हारी कृपा का अनायास ही स्मरण हो आता है और अपने अक्षम्य अपराधों के लिये ग्लानि भी होती है। हे नाथ ! तुमसे प्रार्थना है कि मेरे "दुष्ट" स्वभाव को तुम सबके सामने उजागर कर दो ताकि कम से कम मैं ऐसे घ्रणित अपराध से तो बच सकूँ जिसमें मैं अपनी सम्पूर्ण शक्ति को लगा रहा हूँ, एक झूठी छवि को नित संवारने लगता हूँ और दूसरों के साथ कपट करते करते स्वयं भी अपने ही कपट के झाँसे में आ जाता हूँ।
जब मेरी असलियत सबके सामने आ जावेगी तो सब मुझे "अकेला" छोड़ देंगे और संभवत: तभी मैं आपकी ओर देखूँ। 
हे नाथ ! क्या-क्या किया, यह न पूछो, कौन सा ऐसा अपराध है, जो न किया ? गीता के और शास्त्रों के वाक्यों का भी अपने स्वार्थवश अनुचित अर्थ करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। क्या लाये थे, क्या ले जाओगे; इसका अर्थ दूसरों में ही घटित होते देखने की इच्छा बनी रहे। जहाँ हमारी दाल न गले वहाँ आपको कर्ता बताते हैं और जहाँ गल जावे वहाँ हम स्वयं ही आपका अंश होने की दुहाई देकर कर्ता हो जाते हैं। हे नाथ ! मेरे अध:पतन की कोई सीमा नहीं है, आप सर्वज्ञ हैं परन्तु यह संदेह बना ही रहता है कि क्या आप मेरी दुष्टता को समग्र रुप से जानते भी हैं या जानकर भी नेत्र मूँद रखे हैं। हे नाथ ! पतन की अंतिम सीढी तक पहुँच चुका हूँ, अब और पतन संभव भी नहीं है सो अब तुम्हें न पुकारुँ तो किसे पुकारूँ ? 
यह तुम्हारा प्रेम-स्नेह ही है कि मुझसे अधम को भी, कभी भी तुम्हारी कृपा के बारे में कोई संदेह नहीं रहा। मैं भले ही आपको छोड़ दूँ पर आप मुझे किसी भी परिस्थिति में नहीं छोड़ेंगे, यह विश्वास भी सदैव ही रहा है। कैसी विडंबना है कि एक ओर तुम पर अगाध विश्वास और दूसरी ओर स्वयं का ऐसा पतन करने वाला भी "मैं" ही। या तुमसे भी कपट ही कर रहा हूँ ? असत्य की इतनी भूलभुलैया अपने चारों ओर रच लीं हैं कि दूसरों को उन भुल-भुलैया में घुमाते-घुमाते बहुधा स्वयं ही कोई निर्णय नहीं ले पाता कि मार्ग कौन सा है।
न तो भक्त हूँ, न शास्त्रों को ही जानता हूँ, न संतों की ही सेवा की है, न तो विनम्र ही हूँ; इसके विपरीत अन्य "गुणों" की सीमा मेरे स्वभाव में ही आकर शेष होती है। यह जो इतनी सी समझ बची है सो भी तुम्हारी कृपा है, बस यही ज्ञात है।
हे नाथ ! भले लोगों को तो सबका ही सहारा मिल जाता है परन्तु मुझसे अधम का तो एकमात्र तुम्हीं सहारा हो।
एक भरोसो, एक बल, एक आस-विस्वास।
एक राम-घनश्याम हित, चातक तुलसीदास॥
आ जाओ गोपाल, अब तो आ जाओ...........।
जय जय श्री राधे !

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