गुरुवार, 18 फ़रवरी 2016

= ज्ञानसमुद्र(द्वि. उ. ३९-४०) =

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स्वामी सुन्दरदासजी महाराज कृत - श्रीसुन्दर ग्रंथावली
संपादक, संशोधक तथा अनुवादक ~ स्वामी द्वारिकादासशास्त्री
साभार ~ श्री दादूदयालु शोध संस्थान, अध्यक्ष ~ गुरुवर्य महंत महमंडलेश्वर संत १०८ स्वामी क्षमारामजी महाराज
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*= ज्ञानसमुद्र ग्रन्थ ~ द्वितीय उल्लास =*
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*२- प्रेमाभक्ति*
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*नराय१ (नाराच)  
*न लाज कांनि लोक की, न बेद कौ कह्यौ करै ।*
*न शंक भूत प्रेत की, न देव यक्ष तें डरै ॥*
*सुनैं न कांन और की, दृशै न और लक्षणा ।*
*कहै न मुक्ख और बात, भक्ति प्रेमलक्षणा ॥३९॥*
(१. नराय = नराच = नाराच छन्द-१८ अक्षर का है, जिस में २ नगण ४ रगण होते हैं । परन्तु यह १६ अक्षर का नराच छन्द है, जिसको पंचचामर नाम से पुकारते हैं, और नागराज भी । इसमें जगण + रगण + जगण + रगण + जगण : और अन्त में एक गुरु होता है । यह चामर छन्द के आदि में लघु देने से बनता है । )
उस समय उसे न लोक-व्यवहार  निभाने की चिन्ता रहती है, न शास्त्र-वचन पालन करने की । न भूत-प्रेत की शंका रहत है, न किसी देवता-यक्ष, राक्षसों से डरता है । वह इस बारे में किसी की नहीं सुनता, न किसी अन्य सांसारिक वस्तु को वासना की दृष्टि से देखने की इच्छा करता है । वह भगवन्नाम के अतिरिक्त मुख से कुछ नहीं बोल पाता । भक्त के इस आचरण को प्रेमलक्षणा भक्तिकहते हैं ॥३९॥
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*रंगिक्का२*
*निश दिन हरि सौं चित्तासक्ती, सदा ठग्यौ सो रहिये ।*
*कोउ न जानि सकै यह भक्ती, प्रेम लक्षणा कहिये ॥४०॥*
(२- रंगिक्का- यह छन्द १६+१२ =२८ मात्रा का विषम वृत है । इसको सार’, ‘ललितऔरनरेन्द्रआदि नाम भी देते हैं । )
भक्त का चित्त हमेशा भगवान् में ही लगा रहता है । वह सदा अपने में ही मस्त रहता है । उसकी इस स्थिति को कोइ नहीं जान पाता । इसी को प्रेमलक्षणा भक्ति कहते हैं ॥४०॥
(क्रमशः)

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