卐 सत्यराम सा 卐
रत्न पदारथ माणिक मोती, हीरों का दरिया ।
चिंतामणि चित रामधन, घट अमृत भरिया ॥
समर्थ शूरा साधु सो, मन मस्तक धरिया ।
दादू दर्शन देखतां, सब कारज सरिया ॥
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साभार ~ Indu Mahajan..........
एक महर्षि थे। उनका नाम था कणाद। किसान जब अपना खेत काट लेते थे तो उसके बाद जो अन्न-कण पड़े रह जाते थे, उन्हें बीन करके वह अपना जीवन चलाते थे। इसी से उनका यह नाम पड़ गया था।
उन जैसा दरिद्र कौन होगा! देश के राजा को उनके कष्ट का पता चला। उसने बहुत-सी धन-सामग्री लेकर अपने मंत्री को उन्हें भेंट करने भेजा। मंत्री पहुंचा तो महर्षि ने कहा, "मैं सकुशल हूं। इस धन को तुम उन लोगों में बांट दो, जिन्हें इसकी जरूरत है।"
इस भांति राजा ने तीन बार अपने मंत्री को भेजा और तीनों बार महर्षि ने कुछ भी लेने से इंकार कर दिया।
अंत में राजा स्वयं उनके पास गया। वह अपने साथ बहुत-सा धन ले गया। उसने महर्षि से प्रार्थना की कि वे उसे स्वीकार कर लें, किन्तु वे बोले, "उन्हें दे दो, जिनके पास कुछ नहीं है। मेरे पास तो सबकुछ है।" राजा को विस्मय हुआ! जिसके तन पर एक लंगोटी मात्र है, वह कह रहा है कि उसके पास सबकुछ है। उसने लौटकर सारी कथा अपनी रानी से कही। वह बोली, "आपने भूल की। ऐसे साधु के पास कुछ देने के लिए नहीं, लेने के लिए जाना चाहिए।"
राजा उसी रात महर्षि के पास गया और क्षमा मांगी।
कणाद ने कहा, "गरीब कौन है? मुझे देखो और अपने को देखो। बाहर नहीं, भीतर। मैं कुछ भी नहीं मांगता, कुछ भी नहीं चाहता। इसलिए अनायास ही सम्राट हो गया हूं।" एक सम्पदा बाहर है, एक भीतर है। जो बाहर है, वह आज या कल छिन ही जाती है। इसलिए जो जानते हैं, वे उसे सम्पदा नहीं, विपदा मानते हैं। जो भीतर है, वह मिलती है तो खोती नहीं। उसे पाने पर फिर कुछ भी पाने को नहीं रह जाता।
यह कैसी धर्म-साधना?
एक व्यक्ति ने किसी साधु से कहा, "मेरी पत्नी धर्म-साधना में श्रद्धा नहीं रखती। यदि आप उसे थोड़ा समझा दें तो बड़ा अच्छा हो।" साधु बोला, "ठीक है।" अगले दिन सबेरे ही वह साधु उसके घर गया। पति वहां नहीं था। उसने उसके सम्बंध में पत्नी से पूछा। पत्नी ने कहा, "जहां तक मैं समझती हूं, वह इस समय चमार की दुकान पर झगड़ा कर रहे हैं।" पति पास के पूजाघर में माला फेर रहा था। उसने पत्नी की बात सुनी। उससे यह झूठ सहा नहीं गया। बाहर आकर बोला, "यह बिल्कुल गलत है। मैं पूजाघर में था।"
साधु हैरान हो गया। पत्नी ने यह देखा तो पूछा, "सच बताओं कि क्या तुम पूजाघर में थे? क्या तुम्हारा शरीर पूजाघर में, माला हाथ में और कहीं नहीं था?" पति को होश आया। पत्नी ठीक कह रही थी। माला फेरते-फेरते वह सचमुच चमार की दुकान पर ही चला गया था। उसे जूते खरीदने थे और रात को ही उसने अपनी पत्नी से कहा था कि सबेरा होते ही खरीदने जाऊंगा। माला फेरते-फेरते वास्तव में उसका मन चमार की दुकान पर पहुंच गया था और चमार से जूते के मोल-तोल पर कुछ झगड़ा हो रहा था।
विचार को छोड़ों और निर्विचार हो जाओ तो तुम जहां हो, वहीं प्रभु का आगमन हो जाता है।
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