॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥
"श्री दादू अनुभव वाणी" टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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= विरह का अँग ३ =
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ज्यों कुंजर के मन वन बसे, अनल पंखि आकास ।
यों दादू का मन राम सौं, ज्यों वैरागी वनखण्ड वास ॥२२॥
जैसे हाथी का मन वन में, अनल पक्षी का मन आकाश में, विरक्त का मन वन - खण्ड में लगा रहता है, वैसे ही मेरा मन राम के स्वरुप में लगा रहता है ।
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भँवरा लुब्धी वास का, मोह्या नाद कुरंग ।
यों दादू का मन राम सौं, ज्यो दीपक ज्योति पतंग ॥२३॥
जैसे भ्रमर कमल - सुभंध से, मृग बरवै राग की वीणा - ध्वनि से, पतंग दीपक - ज्योति से मोहित होता है, वैसे ही मेरा मन राम से मोहित हो गया है ।
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श्रवणा राते नाद सौं, नैना राते रूप ।
जिव्हा राती स्वाद सौं, त्यों दादू एक अनूप ॥२४॥
जैसे श्रवण शब्द में, नेत्र रूप में, जिव्हा रसास्वादन में अनुरक्त है, वैसे ही मेरा मन त्रिविधि भेद - शून्य अनुपम ब्रह्म में अनुरक्त है ।
(क्रमशः)
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