मंगलवार, 7 जून 2016

= विरह का अंग =(३/२८-३०)

॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥
"श्री दादू अनुभव वाणी" टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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= विरह का अँग ३ =
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दादू हरदम१ मांहि दिवान२, कहूं दरूने३ दरद सौं । 
दरद दरूने जाइ, जब देखूं दीदार को ॥२८॥ 
यह महान् प्रभु मेरे हृदय - दरबार२ में प्रति प्यास१ विद्यमान है किन्तु मुझे दर्शन नहीं देता । मैं हृदय३ की व्यथासे व्यथित होकर कहता हूँ - जब मैं प्रभु का स्वरुप देखूंगा, तब ही मेरे हृदय का दर्द दूर होगा । 
विरह विनती 
दादू दरूने दरदवंद, यहु दिल दरद न जाइ । 
हम दुखिया दीदार के, महरवान दिखलाय ॥२९॥ 
२९ - ३१ में विरह - पूर्वक दर्शनार्थ विनय कर रहे हैं - मैं हृदय के दर्द से युक्त हूँ, यह वियोग - जन्य कष्ट आप के दर्शन बिना हृदय से दूर न हो सकेगा । हम आपके दर्शनार्थ दु:खी हैं । दयालो ! अपने स्वरुप का दर्शन कराइये । 
मूये पीड़ पुकारतां, वैद्य न मिलिया आइ । 
दादू थोड़ी बात थी, जे टुक दरश दिखाय ॥३०॥ 
हम हरि - वियोग - जन्य पीड़ा से पीड़ित होकर पुकारते २ मर रहे हैं किन्तु अभी तक हमारा प्रियतम प्रभु रूप वैद्य आकर हमें अपनी दर्शन - औषधि नहीं दे रहा है । प्रभो ! हमारे कष्ट को मिटाने की बात तो बहुत ही अल्प थी, यदि आप किंचित् मात्र अपना दर्शन करा देते तो तुरन्त मिट जाता ।
(क्रमशः)

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