शुक्रवार, 3 जून 2016

= १८३ =

卐 सत्यराम सा 卐
कछु न कहावै आपको, काहू संग न जाइ ।
दादू निरपख ह्वै रहै, साहिब सौं ल्यौ लाइ ॥
ना हम छाड़ैं ना गहैं, ऐसा ज्ञान विचार ।
मध्य भाव सेवैं सदा, दादू मुक्ति द्वार ॥ 
===========================
साभार ~ Anand Nareliya

ताओ उपनिषाद–(भाग–5) प्रवचन–105...osho
जब तक परम ज्ञान न हो जाए तब तक तुम अज्ञान को ही अपनी अवस्था समझना। और इंच भर भी तरकीबें मत निकालना कि हां, कई तरह के अज्ञानी हैं; कुछ मुझसे नीचे हैं।
कोई अज्ञानी तुमसे नीचे नहीं है। और तुम किसी अज्ञानी से ऊंचे नहीं हो। अज्ञानी यानी अज्ञानी। कुछ अज्ञानी धन में खोए होंगे; कुछ अज्ञानी धर्म में खोए हैं। किन्हीं ने तिजोरियां भर ली हैं, किन्हीं ने त्याग कर लिया है। किन्हीं के पास सिक्के चांदी के हैं; किन्हीं के पास सिक्के त्याग के हैं। किन्हीं ने उपवास से खाते-बहियों को भर रखे हैं, त्याग-व्रत से, और किन्हीं ने कुछ और कूड़ा-कबाड़ इकट्ठा कर लिया है। कोई बाहर की रोशनी के लिए दीवाने हैं; किन्हीं ने भीतर की रोशनी को पकड़ रखा है। लेकिन सब अज्ञानी हैं; बाहर और भीतर से कोई फर्क नहीं पड़ता।
ज्ञान की घड़ी के पहले तक–आखिरी क्षण तक–तुम अपने को अज्ञानी ही समझना। अगर आखिरी क्षण को आने देना हो, जब तक कि तुम मंदिर में बुला ही न लिए जाओ भीतर, तब तक तुम अज्ञानी ही बने रहना, तब तक तुम याचक ही रहना; तब तक तुम भिक्षा-पात्र को फेंक मत देना; तब तक तुम अपने को विनम्र ही रखना; तब तक जरा भी अहंकार को निर्मित मत होने देना। अगर इस अहंकार को तुम रास्ते पर निर्मित होने दिए तो आखिरी क्षण में यही अहंकार तुम्हें डुबाएगा; यही सांप है जो तुम्हें आखिरी क्षण से लील जाएगा और वापस पहुंचा देगा जहां उसकी पूंछ है।
इसे तुम पहले ही क्षण से स्मरण रखना। धर्म को संपदा मत बनाना और अनुभवों को इकट्ठा मत करना। कहना कि सब राह के किनारे की बातें हैं; घटती हैं, सामान्य हैं। उन पर ज्यादा ध्यान मत देना। उनका विचार भी मत करना। उनके साथ अकड़ को मत जोड़ना। अगर तुम पहले से ही होशपूर्वक चले और अंतिम क्षण तक अपने को अज्ञानी ही जाना, तो तुम्हें आखिरी मंजिल के कदम से कोई भी वापस न भेज सकेगा

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें