मंगलवार, 20 सितंबर 2016

= परिचय का अंग =(४/८६-८)

॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥
**श्री दादू अनुभव वाणी** टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥

**= परिचय का अँग ४ =**

जागत जगपति देखिये, पूरण परमानन्द ।
सोवत भी सांई मिले, दादू अति आनन्द ॥८५॥
हम जाग्रतावस्था में विश्व में परिपूर्ण जगतपति परमानन्द रूप ब्रह्म को ब्रह्माकार वृत्ति द्वारा देखते रहते हैं और सोते समय भी तैजस् तथा प्राज्ञ के लक्ष्यार्थ रूप प्रभु हम से मिले हुये ही रहते हैं । इस प्रकार कभी भी वियोग न होने से हमें नित्यानन्द का अनुभव होता रहता है ।

दह दिशि दीपक तेज के, बिन बाती बिन ते ।
चहुं दिशि सूरज देखिये, दादू अद्भुत खेल ॥८६॥
ज्योति रूप ब्रह्म का ध्यान करने से ध्यान की परिपाकावस्था में बिना बत्ती और बिना तेज के ही दसों दिशाओं में दिव्य तेजोमय दीपक दृष्टि में आते हैं और कभी कभी चारों ओर सूर्य ही सूर्य दीख पड़ते हैं । ऐसा ज्योतिर्मय अद्भुत खेल उस समय देखने में आता है । बाह्य एक सूर्य भी अपने ताप से सबको जलाने लगता है किन्तु वहां के अनेक सूर्य भी नहीं तपाते, यह अद्भुतता है ।

सूरज कोटि प्रकाश है, रोम रोम की लार ।
दादू ज्योति जगदीश की, अंत न आये पार ॥८७॥
जगत् के स्वामी ब्रह्म की ज्योति का प्रकाश शरीर के प्रत्येक रोम के साथ कोटि सूर्यों के समान प्रतीत होता है । इस प्रकाश का कभी भी अन्त नहीं होता । विचार द्वारा निश्चय होता है कि - ब्रह्म की ज्योति का प्रकाश ब्रह्म रूप होने से अपार है ।
(क्रमशः)

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