शुक्रवार, 30 सितंबर 2016

= परिचय का अंग =(४/१०३/०५)


॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥
**श्री दादू अनुभव वाणी** टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
.
**= परिचय का अँग ४ =**
.
वार पार नहिं नूर का, दादू तेज अनँत ।
कीमत नहिं करतार की, ऐसा है भगवँत ॥१०३॥
तेज स्वरूप ब्रह्म अनन्त है । ब्रह्म के स्वरूप प्रकाश का आदि अन्त नहीं ज्ञात होता । विश्व का आदि कर्त्ता होने से उसकी महिमा रूप कीमत, उसके कार्य से पूर्ण रूप से नहीं हो सकती । ऐसा विलक्षण ब्रह्म का स्वरूप है ।
निर्संध नूर अपार है, तेज पुँज सब माँहि ।
दादू ज्योति अनँत है, आगो पीछो नाँहि ॥१०४॥
अवयव रहित होने से उसमें कोई सन्धि नहीं है । उसका स्वरूप अपार है । तेजो राशि ब्रह्म आत्म रूप से सबके भीतर स्थित है । उसकी ज्ञान रूप ज्योति भी अनन्त है । निराकार होने से उसका अग्र भाग और पृष्ठ भाग नहीं सिद्ध होता ।
खँड - खँड निज ना भया, इकलस१ एकै नूर२ ।
ज्यों था त्यों ही तेज है, ज्योति रही भरपूर ॥१०५॥
निजात्म - स्वरूप ब्रह्म सदा अखँड होने से उसके भिन्न - भिन्न अवतार रूप खँड नहीं हुये हैं । अवतार माया विशिष्ट के ही होते हैं । शुद्ध ब्रह्म का स्वरूप२ तो सदा एक - रस१ अद्वैत ही है । वह तेज स्वरूप ब्रह्म आदि में जैसा था वैसा ही अब भी है और उसकी सत्ता रूप ज्योति सब विश्व में परिपूर्ण रूप से भरी हुई है । उसी के आधार पर विश्व का सँचालन होता है ।
(क्रमशः)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें