सोमवार, 19 सितंबर 2016

= विन्दु (२)८५ =

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॥ दादूराम सत्यराम ॥
**श्री दादू चरितामृत(भाग-२)** लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥

**= विन्दु ८५ =**

**= मारोठ गमन =**
फिर वहां से मोहनजी दफ्तरी शिष्यों सहित दादूजी को मारोठ ले गये । मारोठ में अच्छा सत्संग चला और बहुत अच्छी संत सेवा भी हुई । 
**= शिष्य जैमल चौहान =**
मारोठ से खालड़ा(बूंली ग्राम) के जयमल चौहान दादूजी को अपने ग्राम लाये और सत्संग की अच्छी व्यवस्था की । वहां के लोग संतों के दर्शन तथा सत्संग से परमलाभ उठाने लगे और संत सेवा में भी अच्छा भाग लेने लगे । जैमल चौहान बड़े वीर पुरुष थे और कभी - कभी कृपणों को लूटकर संतों, ब्राह्मणों और गरीबों की सेवा किया करते थे । एक दिन जयमल चौहान दादूजी को प्रणाम करके हाथ जोड़े हुये दादूजी के सामने बैठे थे तब दादूजी ने उनके अधिकार का विचार करके उनको उपदेश देने के लिये यह पद बोला - 
**= जयमल चौहान को उपदेश =**
"ता सुख को कहो का कीजे, 
जा तैं पल पल यहु तन छीजे ॥ टेक ॥ 
आसन कुंजर शिर छत्र धरीजे, 
तातैं फिर फिर दुःख सहीजे ॥ १ ॥ 
सेज सँवार सुन्दरि संग रमीजे, 
खाय हलाहल भरम मरीजे ॥ २ ॥ 
बहु विधि भोजन मान रूचि लीजे, 
स्वाद संकट भरम पाश परीजे ॥ ३ ॥ 
ये तज दादू प्राण पतीजे, 
सब सुख रसना राम रामीजे ॥ ४ ॥ 
"प्रचण्ड वैराग्य का उपदेश कर रहे हैं - जिससे क्षण - क्षण में यह शरीर क्षीण होता है, उस विषय सुख को प्राप्त करके क्या करना है बताओ ? यदि हस्ति पर बैठकर, शिर पर छत्र धारण करके राजा बनेंगे तो राजमद से किये हुये अनर्थों के कारण पुनः पुनः दुःख सहने होंगे । सजी हुई शय्या पर सुन्दरी के साथ रमण करना भ्रमवश विषय रूप महाविष खाकर मरता है । स्वादिष्ट मानकर नाना प्रकार के भोजन करते रहेंगे तो स्वाद के द्वारा स्वादु भोजन प्राप्ति के संकट में पड़कर भ्रम - पाश में ही बँधे रहेंगे । अतः ये सब विषय त्यागकर जब प्राणी भगवद् विश्वास पूर्वक भजन करता है, तब ही उसे सब प्रकार से परमानन्द प्राप्त होता है । 
उक्त उपदेश को सुनकर जैमल चौहान को वैराग्य हो गया फिर उन्होंने दादूजी से दीक्षा देने की प्रार्थना की, तब दादूजी ने गुरुमंत्र(अविचल मंत्र) देकर दीक्षा दे दी फिर ये घर आदि को त्याग कर परम विरक्त साधु हो गये, आगे चलकर अच्छे वाणीकार संत हुये । इनकी वाणी बहुत अच्छी है । एक बार एक दुष्ट भेषधारी गुसांई ने ईर्ष्या वश इन पर मूंठ - मंत्र चलाया था तब इन्होंने तत्काल ही राम रक्षा स्त्रोत्र की रचना द्वारा प्रभु से रक्षा की प्रार्थना की और अविचल मंत्र का जप आरम्भ किया था । इससे मूंठ लौटकर चलाने वाले भेष धारी पर जाकर पड़ी । वह फिर इनकी शरण आया तब इन्होंने उसे मृत्यु से बचाया था । ये दादूजी के ५२ शिष्यों में माने जाते थे ।
(क्रमशः)

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