शनिवार, 17 सितंबर 2016

=१९७=

卐 सत्यराम सा 卐
दादू काल हमारे कंध चढ, सदा बजावै तूर ।
कालहरण कर्त्ता पुरुष, क्यों न सँभाले शूर ॥ 
जहाँ जहाँ दादू पग धरै, तहाँ काल का फंध ।
सर ऊपर सांधे खड़ा, अजहुँ न चेते अंध ॥ 
दादू काल गिरासन का कहै, काल रहित कह सोइ ।
काल रहित सुमिरण सदा, बिना गिरासन होइ ॥ 
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साभार ~ Gems of Osho

तुमने शेखचिल्ली की कहानी सुनी न!

वह एक खेत में चोरी करने घुस गया। बाजरे के भुट्टे पक गए थे, उनकी सुगंध हवा में थी। बाजरे के भुट्टे सिर उठाए खड़े थे। खेत के किसान का दूर दूर कुछ पता न था। शेखचिल्ली ने सोचा, यह मौका छोड़ना ठीक नहीं। और बाजरे के पौधे इतने बड़े थे कि उनके भीतर छिप जाए तो पता भी न चले। तो छिप गया। इकट्ठे करने लगा बाजरे के भुट्टे। झोली भर ली पूरी। बड़ा प्रसन्न था। सोचने लगा, बाजार में बेचूंगा, इतने दाम मिलेंगे। मुर्गी खरीद लूंगा। अंडे होंगे रोज रोज अंडे देगी मुर्गी फिर जल्दी गाय खरीद लूंगा, फिर भैस और फिर यात्रा बढ़ती चली गई।

अभी खेत में ही है। अभी भुट्टे इकट्ठे ही कर रहा है। लेकिन मन बहुत दूर की यात्राओं पर निकल गया। यहां तक कि खयाल आया उसे कि जब भैंस से काफी दूध बेच लूंगा और भैंस के बच्चे होंगे, उनको भी बेच लूंगा, इतना धन हो जाएगा कि खेत ही खरीद लूंगा। यह खेत प्यारा है; इसी खेत को खरीद लूंगा। और तभी मन में एक डर आया कि चोर घुस जाए खेत में, फिर? कोई भुट्टे तोड़ ले जाए, फिर? तो कहा, यह खेल नहीं मेरे खेत से भुट्टे तोड़ना। खड़े होकर ऐसी आवाज दूंगा कि मीलों तक दहाड़ हो जाएगी। और खड़े हो उसने आवाज दी सावधान!! और किसान जिसका खेत था, वह आ गया। चोर पकड़ा गया सारे भुट्टों के साथ।

किसान भी चौंका, उसने कहा कि चोरी मेरी समझ में आती है, थोड़ी बहुत चोरी होती ही है, मगर यह खड़े होकर सावधान क्यों चिल्लाए? यह मेरी समझ में नहीं आता। मगर तुम इसका राज मुझे बता दो तो मैं तुम्हें छोड़ दूं, भुट्टों सहित छोड़ दूं। वह चोर कहने लगा, यह न पूछो तो अच्छा! तुम्हें जो सजा देनी हो दे लो, मगर यह राज मैं न कह सकूंगा कि कैसे मैंने सावधान कहा। इसमें मेरी बड़ी दीनता है; इसमें मेरी बड़ी मूढ़ता है।

नहीं माना किसान तो कहानी बतानी पड़ी। ऐसे तो कहानी पता चली शेखचिल्ली की।

अभी कुछ भी न हुआ था और बात कहां से कहां तक पहुंच गई। बात में से बात निकलती गई। कामना में से कामना निकलती गई, नए नए अंकुर खिलते गए।

दो दिन तो हम कामना में बिता देते हैं, जो कि व्यर्थ गए, क्योंकि कामना के किसी बीज से काम्य उपलब्ध नहीं होता। कामना का बीज दग्ध होता है तब काम्य उपलब्ध होता है। कामना के बीज से काम्य उपलब्ध नहीं होता। और फिर दो बीज बो कर हम बैठते हैं, प्रतीक्षा करते हैं कि अब…कि अब, कि अब आया वसंत, कि अब आयी ऋतु। कि आखिर इसी तरह कामना करने वालों ने तो कहावत गढ़ ली है कि उसकी दुनिया में देर है अंधेर नहीं है। तो देर तो काफी हो गई, अंधेर तो उसकी दुनिया में है नहीं, बस अब आता ही होगा फल! अब स्वर्णमुद्राएं बरसती ही होंगी! और ऐसे ही शेखचिल्लियों ने विचार कर लिए हैं कि जब वह देता है, छप्पर फाड़ कर देता है। 

दो दिन कट जाते हैं कामना में, दो दिन कट जाते हैं इंतजार में। और चार ही दिन हमारे पास हैं। चार दिन भी कहां हैं?

जीवन है दिन चार भजन करि लीजिए।

टालो मत कल पर। भगवान को याद करना हो तो अभी कर लो। कल की तो बात ही मत उठाना। जिसने कहा, कल, उसने कहा, नहीं। जिसने कहा, नहीं, उसने कहा, कभी नहीं। भगवान को स्थगित नहीं किया जा सकता। प्रेम को कोई स्थगित करता है, टालता है? प्रेम के लिए तो आतुरता होती है कि अभी हो। पलटू कहते हैं, भजन कर लो। कोई बहाने न खोजो। बहाने खोजे, बहुत महंगे पड़ेंगे। फिर बहुत पछताओगे। फिर पछताने से भी कुछ होगा नहीं।

भजन का क्या अर्थ होता है? बैठ कर मंजीरा बजा लिया, कि बैठ कर राम राम की धुन कर ली, कि राम नाम का अखंड पाठ कर लिया? नहीं, इन औपचारिकताओं से भजन नहीं होता। भजन का तो अर्थ है: प्राण प्रभु के प्रेम में पगें; एक धुन भीतर बजती रहे, अहर्निश; उठते, बैठते एक स्मरण सतत बना रहे; एक धारा, अंतर्धारा बहती रहे प्रभु की। जो देखो, उसमें प्रभु दिखाई पड़े। जो करो, उसमें प्रभु दिखाई पड़े। जहां चलो, जहां बैठो, वहां तीर्थ अनुभव हो; क्योंकि वह सर्वव्यापी है। जिस भूमि पर हम चलते, उसकी भूमि; जिस भूमि पर बैठते, उसकी भूमि।

सारा जगत परम पुनीत है, पावन है, क्योंकि परमात्मा से आपूर है।

बोलो तो उसने बोलना; सुनो तो उसको सुनना; हवाएं वृक्षों से गुजरें तो उसकी आवाज स्मरण रखना; कोयल पुकारने लगे दूर से तो उसने ही पुकारा है कोयल के रूप में, ऐसा अनुभव करना। ऐसी प्रतीति की सघनता का नाम भजन है। बैठ गए और कोई बंधी बंधाई पंक्तियां दोहरा लीं, तो भजन नहीं होता। तोतारटंत है; भजन का धोखा है।

सपना यह संसार ~ ओशो

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