शनिवार, 17 सितंबर 2016

=१९८=

卐 सत्यराम सा 卐
क्रोध न कबहूँ तजै संग, तातैं भाव भजन का होइ भंग ।
समझि न काई मन मंझारि, तातैं चरण विमुख भये श्री मुरारि ॥ 
अन्तरजामी कर सहाइ, तेरो दीन दुखित भयो जन्म जाइ ।
त्राहि त्राहि प्रभु तूँ दयाल, कहै दादू हरि कर संभाल ॥ 
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साभार ~ रजनीश गुप्ता
(((((((((( माला के फूल ))))))))))
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श्रीआदि शंकरचार्य उनका जीवन वेदों और सनातन धर्म के उत्थान को समर्पित था. हिंदुत्व की रक्षा के लिए आदि शंकराचार्य द्वारा किए योगदान को भुलाया नहीं जा सकता. आज प्रस्तुत है शंकराचार्य को समर्पित एक कथा.
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आदि शंकराचार्य शास्त्रार्थ के लिए मंडन मिश्र के गांव पहुंचे और उनके घर का पता पूछा. लोगों ने कहा- जिस दरवाजे पर तोते भी आपस में शास्त्रार्थ करते दिखें समझ लीजिएगा वही घर मंडन मिश्र का है.
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शंकराचार्य मंडन मिश्र के घर पहुंचे और उन्हें शास्त्रार्थ का निमंत्रण दिया. दोनों शास्त्रार्थ के लिए तैयार हुए समस्या थी कि ऐसे विद्वानों के बीच शास्त्रार्थ का निर्णायक कौन बनेगा.
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विद्वानों के बीच शास्त्रार्थ के निर्णायक को भी प्रतिस्पर्धियों जैसा ज्ञान तो होना ही चाहिए. शंकराचार्य ने इसके लिए मंडन मिश्र की पत्नी भारती देवी का नाम सुझाया.
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मंडन मिश्र और शंकराचार्य के बीच शास्त्रार्थ सोलह दिन तक लगातार चला. भारती देवी को कुछ आवश्यक कार्य के लिए बाहर जाना था लेकिन हार-जीत का निर्णय अभी हुआ नहीं था. बड़ी दुविधा थी. 
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भारती देवी ने इसका रास्ता निकाला. जाने से पहले उन्होंने दोनोँ विद्वानोँ के गले मेँ एक-एक फूलमाला डालते हुए कहा, येँ मालाएं मेरी अनुपस्थिति मेँ आपके हार और जीत का फैसला करेँगी.
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देवी भारती की अनुपस्थिति में शास्त्रार्थ विधिवत चलता रहा. कुछ समय पश्चात् देवी भारती लौटीं. उन्हें निर्णय सुनाना था. उन्होंने निर्णायक दृष्टि से दोनों का बारी-बारी से परीक्षण किया और शंकराचार्य को विजयी घोषित कर दिया.
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मंडन मिश्र इस निर्णय को स्वीकार करके शांत भाव से थे. पर शास्त्रार्थ के साक्षी दर्शक हैरान थे कि बिना किसी आधार के इस विदुषी ने अपने पति को कैसे परास्त घोषित कर दिया.
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एक विद्वान नेँ देवी भारती से नम्रतापूर्वक कहा- आप तो शास्त्रार्थ के मध्य ही चली गई थीँ फिर वापस लौटते ही आपनेँ ऐसा फैसला कैसे दे दिया ?
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देवी भारती ने मुस्कुराकर जवाब.दिया- जब भी कोई विद्वान शास्त्रार्थ मेँ पराजित होने लगता है और उसे जब हार की झलक दिखने लगती है तो वह क्रुद्ध हो उठता है. क्रोध से शरीर का ताप बढ़ जाता है.
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मेरे पति के गले की माला उनके क्रोध की ताप से सूख चुकी है जबकि शंकराचार्य जी की माला के फूल अभी भी पहले की भांति ताजे हैँ. इससे मैं इस निष्कर्ष पर पहुंची कि शंकराचार्य की विजय हुई है.
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विदुषी भारती का निर्णय सुनकर सभी दंग रह गए. सबने उनकी काफी प्रशंसा की. इसके उपरांत भारती ने शंकराचार्य से कहा कि उनकी जीत आधी है क्योंकि विवाह के बाद पति पत्नी मिलकर पूर्ण होते हैं.
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अभी सिर्फ मंडन मिश्र पराजित हुए हैं, भारती नहीं. भारती ने शंकराचार्य को शास्त्रार्थ की चुनौती दी. शंकराचार्य को एक बिंदु पर भारती के सामने घुटने टेकने पड़े और शास्त्रार्थ की तैयारी के लिए छह माह का समय मांगना पड़ा.
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उपर की कथा का सार यह है कि क्रोध ऐसा विकार है जो आपके मुख से जीत को खींच लेता है. क्रोध अज्ञानता की ओर और अज्ञानता विनाश की ओर ले जाता है.
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क्रोध पर विजय प्राप्त करना मुश्किल तो है लेकिन इसके लाभ को देखकर हमें साधना मार्ग से क्रोध पर जीत का प्रयास भी करना चाहिए.
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(((((((((( जय जय श्री राधे ))))))))))
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