सोमवार, 19 सितंबर 2016

=१९९=

卐 सत्यराम सा 卐
मतवाले पँचूं प्रेम पूर, निमष न इत उत जाहिं दूर ॥ टेक ॥
हरि रस माते दया दीन, राम रमत ह्वै रहे लीन ।
उलट अपूठे भये थीर, अमृत धारा पीवहिं नीर ॥ १ ॥
सहज समाधि तज विकार, अविनाशी रस पीवहिं सार ।
थकित भये मिल महल मांहिं, मनसा वाचा आन नांहिं ॥ २ ॥
मन मतवाला राम रंग, मिल आसण बैठे एक संग ।
सुस्थिर दादू एकै अंग, प्राणनाथ तहँ परमानन्द ॥ ३ ॥
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साभार ~ Pannalal Ranga 
अली, पतंग, मृग, मीन, गज जले एक ही आग |
तुलसी वो कैसे बचे, जिनके लागे पाँच ||
सरलार्थ : अली(भवंरा, सूंघने की), पतंग(पतंगा, देखने की), मृग(हिरन, सुनने की), मीन( मछली, जिव्हा की), गज(हाथी, त्वचा की), ये सब तो एक एक इन्द्री के वश में आकर मर जाते है | तुलसी वो(इंसान) कैसे बचे जिसमे ये पांचो इन्द्रिया मौजूद है |

O mind, my friend, I beseeched you many times;
Enticed by the colour of the safflower,
you have forgotten your source.*
You are in pursuit of the pleasure of a dream;
you shall suffer later on.
Let no one burn in delusion, like the moth
at the sight of a lamp.
A fish, in satisfying its palate,
is separated from the water and dies.
Being unaware of the net laid underneath,
it brings torture to its body.
You see that likewise the blind are flung to disaster
through their own temptations.
*The colour of safflower is pleasing outwardly, but it does not last long.
Open your closed fist, O foolish one, and be released.*
Listen to my instruction: be devoted to God
and let not your purpose be defeated.
Turn to God, O friend, and serve the One
who is the Ocean of Bliss, pleads Dadu.
*This refers to the popular device of catching a monkey. Some grain, tempting to the monkey, is put into a narrow-necked pot while the monkey is watching. Later on, the monkey, finding no one around, comes and grabs a handful of it, but cannot extricate its hand, as its tightly closed fist is stuck in the narrow-necked pot. The foolish monkey does not open its fit and is thereby caught.

भंवरे की एक ही लिप्सा होती है -सुगन्ध! संध्या उतर आने पर भी वह पुष्प को छोड़ नहीं पाता और अंतत: उसी में कैद होकर अपने प्राण गंवा बैठता है। 

दृष्टि रोग का मारा पतंगा खुद को अग्नि के हवाले कर स्वाहा हो जाता है। 

हाथी स्पर्श रोग से पीड़ित है, 

तो मृग संगीत का रसिक है। दोनों इन विवशताओं में बंधे शिकारी के बंधक बन जाते हैं। 

वहीं मछली स्वाद के लोभ से बाध्य हो कांटे में जा फंसती है। परन्तु इन सभी जीवों से अधिक दयनीय दशा तो मनुष्य की है। उसकी तो पांचों ज्ञानेन्द्रियां ही अपने-अपने क्षेत्र में पूरे जोर-शोर से सक्रिय हैं। 

इसी के बारे में तुलसीदास ने लिखा है , 
अलि पतंग गज मीन मृग , जरे एक ही आँच। 
तुलसी वह कैसे बचे , जाको लागे पाँच।। 
जीवन में शांति का मार्ग इंद्रिय नियंत्रण के द्वार से ही निकलता है। पल-प्रतिपल प्रबल होती हमारी इन्द्रियों की मांग ही हमें अधीर व अशांत बनाए रखती है। मान लीजिए, हमारी दृष्टि एक भोज्य पदार्थ पर पड़ी। नेत्रों ने उसी समय यह संदेश ज्ञान तंतुओं के माध्यम से मस्तिष्क तक पहुंचा दिया। मस्तिष्क एक मुख्यालय की तरह है। वह संदेश पाते ही हरकत में आ गया। उसने ज्ञान लहरें उत्पन्न कीं व झट से सभी सहायक इन्द्रियों तक इस विषय पदार्थ की खबर पहुंचा दी। अब तो बस, प्रत्येक इन्द्रिय अपना-अपना विषय भोगने को व्याकुल हो उठी। रस ग्राही जिह्वा पदार्थ का भक्षण करना चाहती है, तो हाथ उस वस्तु को छूकर मुख तक पहुंचाना चाहते हैं। नासिका उसकी सुगन्ध में डूबने को अधीर है। 
पश्चिमी विचारक फ्रॉयड का कहना था कि, 'कामनाएं तो मनुष्य की स्वाभाविक मनोवृत्तियां हैं। इन स्वाभाविक प्रवृत्तियों को दबाने की जगह स्वच्छंद प्रवाहित होने देना चाहिए। दबाने से ये प्रवृत्तियां दबती नहीं हैं। अधिक प्रबल होकर मन में अनेकों विकारों को उत्पन्न करती हैं। देगची आग पर चढ़ी हुई है और निरंतर उसमें भाप उठ रही है। अगर आप उस पर ढक्कन रखकर भाप को रोकना चाहेंगे, तो उसका दबाव ढक्कन को भी उतार फेंकेगा।' 
फ्रायड का यह कथन सुनने में तो तर्क सम्मत लगता है। परन्तु वास्तव में यह कितना व्यावहारिक एवं प्रासंगिक हैं ? राजा ययाति की काम वासना अपने सबसे छोटे पुत्र पुरु की युवावस्था लेकर भी तृप्त नहीं हुई। दिग्विजयी सिकन्दर के भीतर एक राज्य को फतह करने के बाद दूसरे को जीतने की इच्छा प्रबल होती जाती थी। फिर ऐन्द्रिक इच्छाओं के अग्निकुंड में भोगों की आहुति बार-बार डालकर उसे और अधिक प्रबल बनाना कहां तक उचित है ? जीवन के व्यावहारिक अनुभव स्पष्ट करते हैं कि इन्द्रियों को तृप्त करने के हमारे सभी प्रयास इन्हें और अतृप्त बना देते हैं। 

अब प्रश्न है कि यदि कामनाओं को दबाना या उनकी पूर्ति करना दोनों ही समस्या के समाधान नहीं, तो फिर सही विकल्प कौन सा है ? क्या स्वयं को उस इच्छित वस्तु से दूर करना उपाय है ? परन्तु इस संदर्भ में श्री कृष्ण कहते हैं कि - 'विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिन:!' अर्थात निराहारी पुरुष से विषय तो दूर हो जाते हैं, परन्तु उनके प्रति मन से राग नहीं। समस्या का समाधान तो तब है जब 'राग ही शेष न रहे।' यह संभव है। श्री कृष्ण आगे कहते हैं कि, 'परमतत्व(ब्रह्मा) को देखने पर ही पुरुष राग से निवृत्त हो पाता है। इस ब्रह्मा(प्रकाश) का साक्षात्कार आत्मज्ञान द्वारा सम्भव है। 
मनुष्य की यह प्रवृत्ति है कि कुछ श्रेष्ठ मिलने पर वह निमन् को स्वयं ही छोड़ देता है। तैत्तरीयोपनिषद में वर्णित है कि 'रसो वै स:'- वह ब्रह्मा(परम) रस है जिसे प्राप्त करके जीवात्मा आनन्द युक्त होता है। अत: आत्मज्ञान की प्राप्ति के बाद जब हम उस परम रस(ब्रह्मा) में स्थित होते हैं, तो हमसे तुच्छ सांसारिक राग व रसों की आसक्ति धीरे-धीरे अपने आप छूटती चली जाती है। जिसने ब्रह्मा के इन्द्रियातीत रस को पाया है, वही सही मायनों में अपनी इन्द्रियों को नियंत्रित कर सकता है।
गज अलि मीन पतंग मृग, इक-इक दोष बिनाश।
जाके तन पाँचौं बसै, ताकी कैसी आश॥
सुंदर जाके बित्त है, सो वह राखैं गोइ।
कौडी फिरै उछालतो, जो टुटपूँज्यो होइ॥
मन ही बडौ कपूत है, मन ही बडौ सपूत।
'सुंदर जौ मन थिर रहै, तो मन ही अवधूत

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