सोमवार, 19 सितंबर 2016

=२००=

卐 सत्यराम सा 卐
ज्ञानी पंडित बहुत हैं, दाता शूर अनेक ।
दादू भेष अनन्त हैं, लाग रह्या सो एक ॥ 
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साभार ~ Ranjeet Gahnolia 
ओशो कैसे हो सकता है किसी का आदर्श...!
..................स्वामी जयेंद्र........................
मनुष्य को जिस बड़ी से बड़ी बीमारी ने पकड़ा है और जिससे कोई छुटकारा होता दिखाई नहीं पड़ता, उस बीमारी का नाम है आदर्श।
समझना कठिन होगा, क्योंकि हम सब उसी बीमारी में दीक्षित किए गए हैं। और हम इस कुशलता से दीक्षित किए गए हैं कि आदर्श हमें बीमारी नहीं मालूम पड़ती, जीवन का लक्ष्य मालूम पड़ता है। लगता है वही परम ध्येय है। बीमारी ही स्वास्थ्य की तरह हमें समझाई गई है। और हमारे मन पूरी तरह से बीमारी से ही भर दिए गए हैं।
दूध पीने के साथ बच्चे को आदर्श का जहर दिया जा रहा है। आदर्श का अर्थ है: तुम किसी और जैसे होने की कोशिश करना। एक बात भर आदर्श समझाता है कि तुम अपने जैसे मत होना, किसी और जैसे होना; कोई महावीर, कोई बुद्ध बनना। जैसे तुम अपने लिए पैदा नहीं हुए हो। जैसे यहां तुम इसलिए हो कि किसी और का अभिनय करो। जैसे यहां तुम उधार जीवन जीने को पैदा हुए हो। जैसे परमात्मा के द्वारा तुम तिरस्कृत हो। और कोई और व्यक्ति तुम्हारा आदर्श है जिसके अनुसार तुम्हें अपने को ढालना है।
बस फिर तुम्हारे जीवन में सब रुग्ण हो जाएगा। जिस व्यक्ति ने स्वयं होने को छोड़ा और कुछ और होने की कोशिश की, उसके रोगों का कोई अंत नहीं है। वह रोज नए रोग खड़े कर लेगा; क्योंकि उसकी पूरी जीवन-शैली ही रुग्ण है। व्यक्ति, समाज, राज्य, सभी आदर्श से अनुप्राणित होकर चल रहे हैं। इसलिए जगत एक पागलखाना हो गया; पृथ्वी रुग्णचित्त लोगों की भीड़ हो गई है।
लाओत्से कहता है, सामान्य को ध्यान में रखो, असामान्य को नहीं। और सामान्य के द्वारा अनुशासन हो, सामान्य के आधार पर अनुशासन हो। राज्य, समाज, व्यक्ति सामान्य को सूत्र मान कर चलें। सामान्य नियम हो, असामान्य नहीं।
ओशो

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