सोमवार, 10 अक्तूबर 2016

= परिचय का अंग =(४/१२४-६)


॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥
**श्री दादू अनुभव वाणी** टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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**= परिचय का अँग ४ =** 
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तरुवर शाखा मूल बिन, रज वीरज रहिता ।
अजर अमर अतीत फल, सो दादू गहिता ॥१२४॥
जैसे प्राणियों के शरीर रज - वीर्य से बनते हैं वैसे ही पृथ्वी - रज और जल - वीर्य के सँयोग से शुद्ध ब्रह्म - वृक्ष नहीं उत्पन्न होता । इस कारण उसके न जड़ है और न शाखायें हैं । उस अजर - अमर, गुणातीत शुद्ध ब्रह्म - वृक्ष के दर्शन - फल को हम निरन्तर ग्रहण करते हैं, कभी भी उनके दर्शन से विमुख नहीं रहते ।
तरुवर शाखा मूलबिन, उत्पति परलै नाँहि ।
रहिता रमता राम फल, दादू नैनहुं माँहि ॥१२५॥
उत्पत्ति नाश रहित होने से शुद्ध ब्रह्म - वृक्ष के न जड़ और न शाखा ही है, वह निरंजन राम - वृक्ष व्यापक होने से सम्पूर्ण प्राणियों को अपनी सत्ता से रमाता हुआ और सब में आप रमता हुआ भी माया और माया के कार्य प्रपँच से रहित ही रहता है । उसी का दर्शन - फल हमारे विचार - नेत्रों में बसा है अर्थात् हमारे विचार ब्रह्म भिन्न नहीं होते ।
प्राण तरुवर सुरति जड़, ब्रह्म भूमि ता माँहि ।
रस पीवे फूले फले, दादू सूखे नाँहि ॥१२६॥
ब्रह्म की आधारता का परिचय दे रहे हैं - प्राणधारी साधक सँत ही तरुवर है । उसकी ब्रह्माकार वृत्ति ही जड़ है । ब्रह्म ही भूमि है । ब्रह्म - भूमि में स्थित रहकर सँत - तरुवर, उसी का चिन्तन - रस पान करता रहता है । इसी कारण सँत - तरुवर प्रेमाभक्ति - फूल और ज्ञान - फलों से सम्पन्न रहता है और शोक, मोहादि ताप से नहीं सूखता ।
(क्रमशः)

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