रविवार, 9 अक्तूबर 2016

=३२=


卐 सत्यराम सा 卐
दादू लीला राजा राम की, खेलैं सब ही संत ।
आपा पर एकै भया, छूटी सबै भरंत ॥ 
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साभार ~ oshoganga.blogspot.com

थोड़ा सोचे मनुष्य, विराट को यदि काम की तरह चलाना हो, तो परमात्मा ने कभी की छुट्टी ले ली होती। और यदि परमात्मा छुट्टी ले ले तो मनुष्य के जीवन का फिर क्या उपाय? तब जगत तत्क्षण खो जाएगा।
मनुष्य का मृत्यु को वरण कर लेना सिर्फ उसके घर को ही चोट पहुंचाता है। यदि परम ऊर्जा विश्राम करे, थक जाए, ऊब जाए, दुखी हो जाए तो संसार तत्क्षण लुप्त हो जाएगा। क्योँकि इस विराट ऊर्जा का ही विस्तार है सब।
हिंदूओँ की धारणा अनूठी है, उन जैसी धारणा जगत में किसी की नहीं। हिंदू कहते हैं ये लीला है। ये खेल है। खेल से कभी कोई थकता है? खेल का अर्थ ही ये है, जिसमे कोई प्रयोजन नहीँ, जिसमे फल का कोई प्रश्न नहीँ; अभी और यहीँ शक्ति की अभिव्यक्ति मे ही रस है, परिणाम मे कोई रस नहीँ। मनुष्य है, ये परमात्मा का आनंद है।
मनुष्य कैसा है, ये प्रश्न नहीं है। साधु को देखकर ज्यादा आनंदित हो यदि परमात्मा और असाधु को देखकर कम, तो परमात्मा व्यवसाय कर रहा है। फिर तो वह मनुष्य जैसा ही है। जो बेटा कमा कर लाए, उससे खुश और जो बेटा गंवा आए, उससे मनुष्य नाखुश है। तब तो परमात्मा भी फिर धंधेबाज है और उसके दिमाग में भी गणित है।
नहीं, खेल तटस्थ है।

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