रविवार, 16 अक्तूबर 2016

= विन्दु (२)८६ =

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॥ दादूराम सत्यराम ॥
**श्री दादू चरितामृत(भाग-२)** लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥

**= विन्दु ८६ =**

**= खोजी दादू ज्ञान गोष्टी =**
खोजीजी ने कहा - यदि सब के साथ हैं तो दिखते क्यों नहीं हैं ? 
दादूजी बोले - 
"जब दर्पण मांहीं देखिये, तब अपना सूझे आप । 
दर्पण बिन सूझे नहीं, दादू पुन्य रु पाप ॥"
सूक्ष्म वस्तु को देखने के लिये उसके दिखाने योग्य खुर्दबीन रूप दर्पण से देखें तो वह अपने आप दिख जाती है, वैसे ही ज्ञान के द्वारा पाप पुण्यरूप संसार असत्य रूप से और ब्रह्म आत्मरूप से दीखता है । ज्ञान बिना अन्य किसी भी उपाय से नहीं दीखता । 

खोजीजी ने पूछा - ज्ञान कैसे दिखता है ? यह भी समझाइये । 
दादूजी बोले - 
जीयें१ तेल तिलन्न में, जीयें गंध फूलन्न । 
जीयें माखन क्षीर में, ईयें रब्ब२ रूहन्न३ ॥ 
जैसे१ तिल को देखकर यह ज्ञान हो जाता है कि इस में तेल है । पुष्प की गंध का ज्ञान भी बिना देखे हो ही जाता है । यह गंध पुष्प में ही है । दूध में नवनीत रहता है । इसलिये जैसे तिल में तेल, पुष्प में गंध, दूध में मक्खन रहता है वैसे ही ब्रह्म२ सब आत्माओं३ में रहते हैं । 
"मीत तुम्हारा तुम कने१, तुम ही लेहु पिछान । 
दादू दूर न देखिये, प्रतिबिम्ब ज्यों जान ॥" 
जैसे सूर्यादिक का प्रतिबिम्ब सर्वत्र रहता है किन्तु जलादिक बिना नहीं दिखता; वैसे ही तुम्हारा परम मित्र परब्रह्म व्यापक होने से तुम्हारे पास१ ही है किन्तु ब्रह्माकार वृत्ति बिना नहीं भासता । अतः अपनी वृत्ति को ब्रह्माकार करके तुमही उसे पहचानों वह तुम्हारा आत्मस्वरूप होने से दूसरे के द्वारा दिखाया नहीं जा सकता । 

खोजीजी ने पूछा - प्राणी का मन विषयों में एक मेक हो रहा है, वह कैसे अलग हो ? 
दादूजी ने कहा - 
"दादू एक विचार बल, सब तैं न्यारा होय । 
मांहीं है पर मन नहीं, सहज निरंजन सोय ॥" 
साधक प्राणी वैराग्य पूर्वक एक अद्वैत ब्रह्म विचार रूप बल द्वारा सब संसार से अलग हो जाता है । यद्यपि शरीर संसार में ही रहता है किन्तु मन संसार में न रहकर निरंतर निरंजन राम के चिन्तन में ही रहता है और वह अनायास ही निरंजनराम को प्राप्त हो जाता है । मन प्रभु में कैसे रहता है ? जैसे कमल जल में रहता है किन्तु उसकी प्रीति सूर्य में रहती है, वैसे ही साधक संसार में रहता है किन्तु उसकी प्रीति प्रभु में ही रहती है । जिसमें प्रीति होती है, उसी में मन रहता है, यह तो नियम ही है । 
(क्रमशः)

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