मंगलवार, 11 अक्तूबर 2016

= सर्वंगयोगप्रदीपिका (च.उ. २७/२८) =

🌷🙏🇮🇳 *#daduji* 🇮🇳🙏🌷
🙏 *श्री दादूदयालवे नमः ॥* 🙏
🌷 *#श्रीसुन्दर०ग्रंथावली* 🌷
रचियता ~ *स्वामी सुन्दरदासजी महाराज*
संपादक, संशोधक तथा अनुवादक ~ स्वामी द्वारिकादासशास्त्री
साभार ~ श्री दादूदयालु शोध संस्थान
अध्यक्ष ~ गुरुवर्य महमंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमारामजी महाराज
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*सर्वांगयोगप्रदीपिका(ग्रंथ२)*
**ज्ञानयोग नामक = चतुर्थ उपदेश =** 
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*ब्रह्मयोग सोई भल पावै ।**पहिले सकल साधि करि आवै ।* 
*ब्रह्मयोग सब ऊपर सोई ।**ब्रह्मयोग बिन मुक्ति न होई ॥२७॥*
वस्तुस्थिति यह है कि ब्रह्मयोग की सम्यक् साधना वही कर पाता है जिसने पहले पूर्वोक्त भक्तियोग आदि सभी योगों की(या वेदान्त के साधन-चतुष्टय की) साधना कर वह उनमें परिपक्वबुद्धि हो चुका है; क्योंकि यह योग सूक्ष्म होने के कारण सब योगों से कठिनतया आराध्य है । और इस की आराधना इसलिये भी आवश्यक है कि इसके बिना साधक को संसार में आवागमन से छुटकारा(मोक्षपद) नहीं मिल सकता ॥२७॥
*ब्रह्मयोग जौ उपजै आई ।**तौ दूजा भ्रम जाइ बिलाई ।* 
*होइ अव्यापक कछू न ब्यापै ।**ब्रह्मयोग तब उपजै आपै ॥२८॥* 
जब साधक इस ब्रह्मयोग का साक्षात्कार कर लेता है तब इसके अन्य दार्शनिकों या आचार्यों द्वारा बताये गये मतवादों से उत्पन्न हुए भ्रम स्वयं विनष्ट हो जाते हैं । जब वह साधक संसार से विरक्त हो जाता है, निर्लिप्त हो जाता है, कहीं भी ममत्त्व नहीं रखता, तब वह इस योग का साक्षात्कार करने की स्थिति में पहुंच जाता है ॥२८॥ 
(क्रमशः)

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