मंगलवार, 11 अक्तूबर 2016

=३५=

卐 सत्यराम सा 卐
प्राण हमारा पीव सौं, यों लागा सहिये ।
पुहुप वास घृत दूध में, अब कासौं कहिये ॥
दादू ऐसा बड़ा अगाध है, सूक्षम जैसा अंग ।
पुहुप वास तैं पतला, सो सदा हमारे संग ॥ 
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साभार ~ Gems of Osho
कल्पवृक्ष ~
कल्पवृक्ष स्वर्ग में लगा हुआ कोई वृक्ष नहीं है। कल्पवृक्ष तुम्हारे भीतर की एक चैतन्य अवस्था है।
कल्पवृक्ष की धारणा है कि जिस वृक्ष के नीचे तुम बैठे, इधर तुमने मांगा उधर मिला। ऐसे कोई वृक्ष कहीं नहीं हैं, लेकिन ऐसे वृक्ष तुम बन सकते हो। और उस बनने की दिशा में जो पहला कदम है वह यह कि साधन और साध्य की दूरी कम करो। क्योंकि जहां साधन और साध्य मिलते हैं, वहीं वह घटना घटती है कल्पवृक्ष की।
और तुमने खूब दूरी बना रखी है। तुम तो सदा दूरी निर्मित करते चले जाते हो। तुम कहते हो, कल मिले। तुम्हें यह भरोसा ही नहीं आता कि आज मिल सकता है, अभी मिल सकता है, इसी क्षण मिल सकता है।
तुमने आत्मबल खो दिया है। तुमने जन्मों-जन्मों तक वासना के चक्कर में पड़कर…वासना का चक्कर ही यही है: साध्य और साधन की दूरी यानी वासना; साध्य और साधन का मिलन यानी आत्मा।…तो तुमने इतनी दूरी बना ली है कि इस जन्म में भी तुम्हें भरोसा नहीं आता कि मिलेगा, तो तुम कहते हो, अगले जन्म में! अगले जन्म पर भी भरोसा नहीं आता, क्योंकि तुम जानते हो अपने आपको भलीभांति कि कितने जन्मों से तो भटक रहे हो कुछ मिलता तो नहीं। तो तुम कहते हो, स्वर्ग में, परलोक में; इस लोक में नहीं तो परलोक में। तुम दूर हटाये जा रहे हो। तुम साध्य और साधन के बीच समय की बड़ी दूरी बनाये जा रहे हो। यह समय को हटा दो और गिरा दो।
कृष्ण कहते हैं, फलाकांक्षा छोड़ दो। उपनिषद कहते हैं, कंजूस मत बनो। महावीर कहते हैं, भव्य हो जाओ। भविष्य के पीछे क्यों पड़े हो? तुम भव्य हो सकते हो। तुमने भविष्य को भव्यता दे रखी है।
भव्य का अर्थ हुआ: ऐसी घड़ी जहां तुम्हें पाने को कुछ भी नहीं; जहां सब मिला हुआ है। ऐसी परितृप्ति, ऐसा परितोष!
तो फिर भी तुम्हारे जीवन से धर्म होता है, लेकिन अब धर्म खेल की तरह है। जैसे कोई संगीतज्ञ अपनी वीणा पर धुन उठाता है नहीं कि कुछ पाना है, बल्कि इसलिए कि इतना मिला है, इसे गुनगुनाए, इसे गाए, इसका स्वाद लेता है, कि कोई नर्तक नाचता है नहीं कि कोई देखे; कोई देख ले, यह उसका सौभाग्य है, न देखे उसका दुर्भाग्य है।
जिन सूत्र ~ ओशो

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