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॥ दादूराम सत्यराम ॥
**श्री दादू चरितामृत(भाग-२)** लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
**= विन्दु ८६ =**
**= रामदास को उपदेश =**
डीडवाना में एक पुष्करणे ब्राह्मण रामदास भी दादूजी पर बहुत श्रद्धा रखते थे । एक दिन वे दादूजी के दर्शन करने आये और प्रणाम करके उदास मुख दादूजी के सामने बैठ गये । उस समय उनके मन में कोई चिन्ता हो रही थी, उसे जानकर चिन्तादि के भय से मुक्त करने के लिये संत प्रवर दादूजी ने उनको इस पद से उपदेश किया -
"जियरा चेत रे जनि जारै ।
हेज हरि सौं प्रीति न कीन्ही,
जन्म अमोलक हारे ॥ टेक ॥
बेर बेर समझायो रे जियरा,
अचेत न होइ गंवार रे ।
यहु तन है कागद की गुड़िया,
कछु इक चेत विचार रे ॥ १ ॥
तिल तिल तुझ को हानि होत है,
जे पल राम विसारे ।
भय भारी दादू के जिय में,
कहु कैसे कर डारे ॥ २ ॥"
जीव को चिन्तादि के भय से सावधान कर रहे हैं - हे जीव ! सावधान हो, अपने हृदय को चिन्तादि से क्यों जला रहा है ? तू ने स्नेह से हरि की भक्ति नहीं की है, इस अमूल्य जन्म को व्यर्थ ही क्यों खो रहा है ? अरे मूर्ख मन वाले ! तू असावधान मत हो, तुझे बारंबार समझाया है, यह शरीर कागज की गुड़िया के समान है, इसे नष्ट होते क्या देर लगेगी ? सचेत होकर कुछ तो विचार कर, क्षण - क्षण में तेरी हानि हो रही है । यदि तू एक पल भर भी राम को भूलेगा तो मेरे हृदय में महान् भय की संभावना है अर्थात् तेरे पर महान् विपत्ति आ सकती है । कह तो सही तुझे क्या पता है ? कुटिल कर्म किस प्रकार कब क्या कर डाले अर्थात् कैसी योनि में वा कैसे विपत्ति में डाल दे । अतः कर्म बन्धन काटने के लिये शीघ्र ही राम का भजन कर ।
उक्त उपदेश को सुनकर रामदास ने चिन्ता को हृदय से हटा दिया फिर उसी क्षण उनका मुख मण्डल प्रसन्न भासने लगा । उक्त प्रकार रामदास चिन्ता से मुक्त होकर सदा प्रभु का भजन करते हुये प्रसन्न रहने लगा । डीडवाने में गोपालदास ने बहुत प्रकार - सत्संग, संकीर्तन, भोजन आदि से उत्सव किया था वह पांच दिन तक चलता रहा था । गोपालदास का भक्ति - भाव सब को ही प्रिय लगा था । उस उत्सव में चारों ओर से आस - पास के गावों से संत भक्त आदि आये थे ।
(क्रमशः)
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