रविवार, 2 अक्तूबर 2016

= परिचय का अंग =(४/१०९-११)

॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥
**श्री दादू अनुभव वाणी** टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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**= परिचय का अँग ४ =**
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पुहुप प्रेम वरषे सदा, हरिजन खेलैं फाग । 
ऐसा कौतुक देखिये, दादू मोटे भाग ॥१०९॥ 
हमारे मन - वृक्ष से प्रेम - पुष्पों की वृष्टि सदा होती रहती है और भक्त जन चित्त से प्रेमोत्सव - फाग खेलते रहते हैं । इसी आत्मा - परमात्मा की एकता रूप वसँत में ऐसा अद्भुत खेल देखने में आता है । इसे देखकर हम अपने भाग्य को महान् मानते हैं । 
*परिचय रस* 
अमृत धारा देखिये, पारब्रह्म बरषँत । 
तेज पुँज झिलमिल झरै, को साधू जन पीवँत ॥११०॥ 
१११ - ११५ में रस रूप ब्रह्म के दर्शन - रस - पान का परिचय दे रहे हैं - परब्रह्म से दर्शनामृत - धारा बरस रही है । साधको ! तुम भी समाधि अवस्था में जाकर देखो! उस तेजो - राशि ब्रह्म से झिलमिल - झिलमिल दर्शनामृत झरता हुआ दीखेगा । इस दर्शनामृत का पान समाधि अवस्था को प्राप्त कोई बिरला सँत ही कर सकता है, अन्य नहीं । 
रस ही में रस बरषि है, धारा कोटि अनँत । 
तहं मन निश्चल राखिये, दादू सदा वसँत ॥१११॥ 
जिस भक्त के हृदय में प्रभु - प्रेम - रस रहता है, उसी में अनन्त प्रकार से ब्रह्म दर्शन – रसधारा की वर्षा होती है । उस भक्त को भगवान् समाधि अवस्था में पूर्व कथित ज्योति आदि नाना प्रकार से दर्शन देते हैं । साधको ! उस समाधि अवस्था में जिस प्रभु के दर्शन - रसधारा की वृष्टि होती है, उसी प्रभु में अपने मन को स्थिर रखो । उक्त स्थिरता की दृढ़ता होने पर सदा वसँत के समान आनन्द ही आनन्द रहेगा । 
(क्रमशः)

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