शनिवार, 1 अक्तूबर 2016

=२२=



卐 सत्यराम सा 卐

सहज रूप मन का भया, जब द्वै द्वै मिटी तरंग ।
ताता शीला सम भया, तब दादू एकै अंग ॥ 
सुख दुख मन मानै नहीं, राम रंग राता ।
दादू दोन्यों छाड़ि सब, प्रेम रस माता ॥ 
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साभार ~ Anand Nareliya

तालस्ताय की बड़ी प्रसिद्ध कहानी है।
रूस का जो सबसे बड़ा पुरोहित था, उसे खबर मिली—खबर रोज मिलने लगी, बढ़ने लगी थीं खबरें—कि पास की एक झील के किनारे तीन फकीर रहते हैं, जो बिलकुल बे पढ़े—लिखे और गंवार हैं, जिन्हें प्रार्थना करना भी नहीं आता, उनके लोग दर्शन करने जाते हैं, वहा बड़े चमत्कार होते हैं। वह तो बड़ा नाराज हुआ। उसने एक दिन नाव ली, नाव में बैठकर उस किनारे गया, तो तीनों फकीर वहाँ बैठे थे एक झाड के नीचे। बड़े मस्त हो रहे थे। कोई कारण नहीं दिखायी पड़ता था मस्ती का। डोल रहे थे आनंद में! उसने कहा कि बंद करो यह डोलना! उसने कहा जानते हो, मैं कौन हूं? उन्होंने कहा कि हमें कुछ पता नहीं कि आप कौन हैं। मगर आप बतायें तो हम जान लेंगे कि आप कौन हैं। उसने कहा कि मैं सबसे बड़ा पुरोहित हूं। उन तीनों ने उसके चरणों में सिर रख दिया। तब तो वह निश्चित हो गया कि ये मूढ़, इनको क्या चमत्कार आता होगा और क्या इनको भक्ति आती होगी? लोग इनके पीछे नाहक पागल हो रहे हैं, ये तो मेरे चरणों में सिर रख रहे हैं।

उसने पूछा कि तुम्हारी क्या साधना है? तुम्हारे पीछे भीड़ क्यों आती है? उन्होंने कहा, हम साधना जानते ही नहीं। तुम प्रार्थना क्या करते हो, उस पुरोहित ने पूछा। उन्होंने कहा, प्रार्थना भी अब आप से हम क्या कहें, शर्म आती है। शर्म आती है? फिर भी तुम कहो। उन्होंने एक—दूसरे की तरफ देखा कि भई तू कह दे! मगर वह कोई कहने को राजी नहीं। आखिर एक ने हिम्मत की। उसने कहा अब आप मानते नहीं तो हमें कहना पड़ेगा। असल में प्रार्थना हमें आती नहीं थी, हम तीनों ने अपनी प्रार्थना गढ़ ली है। हमने ही बनायी है, इसलिए क्षमा करना आप। फिर भी उस पुरोहित ने कहा, तुमने क्या प्रार्थना बनायी है? वह तो नाराज होने लगा कि तुमने प्रार्थना बनायी कैसे? प्रार्थना तो चर्च का अधिकार है बनाना। उसका तो ऊपर से निर्णय होता है। तुमने कैसे प्रार्थना बना ली? फिर चर्च की निश्चित प्रार्थना है। क्या है तुम्हारी प्रार्थना?

वे तीनों एक—दूसरे की तरफ देखने लगे। फिर उन्होंने कहा कि अब नहीं मानते तो हम आपको कह देते हैं। हमने सुना है कि ईश्वर के तीन रूप हैं, त्रिमूर्ति; या जैसा ईसाई कहते हैं, ‘ट्रिनिटी’, उसके तीन रूप हैं। और हम भी तीन हैं। तो हमने एक प्रार्थना बना ली है, कि ‘तुम भी तीन, हम भी तीन, हम पर कृपा करो!’ वह पुरोहित तो हंसने लगा। उसने कहा, तुम बिलकुल मूढ़ हो। यह कोई प्रार्थना हुई? मैं तुम्हें प्रार्थना बताता हूं अब तुम यह बंद करो प्रार्थना, यह असली प्रार्थना तुम्हें देता हूं।

तो उसने ईसाई— धर्म की जो स्वीकृत प्रार्थना है, प्रामाणिक, वह कही। लेकिन वे तीनों बोले कि यह तो बड़ी लंबी है और हम भूल जायेंगे। यह संक्षिप्त नहीं हो सकती? उसने कहा कि यह संक्षिप्त नहीं हो सकती, इसमें एक शब्द नहीं बदला जा सकता, न एक जोड़ा जा सकता है। तो उन्होंने कहा, आप फिर एक दफा और कह दें। फिर तीसरी दफे भी कहा कि एक दफा और बस, ताकि हमें याद हो जाए।

इधर पुरोहित कहने लगा, उधर वे उसे दोहराने लगे। उन्होंने कहा कि ठीक, हम कोशिश करेंगे।

पुरोहित बड़ा प्रसन्न होकर नाव में बैठकर वापिस लौटा। जब वह बीच झील में था, तब उसने देखा, एक बवंड़र की तरह चला आ रहा है। वह तो बड़ा हैरान हुआ कि यह क्या है; कोई तूफान नहीं है, कोई आधी नहीं है, यह बवंड़र कैसे आ रहा है? तब उसने गौर से देखा तो पाया कि वे तीनों पानी पर भागते चले आ रहे हैं। उन्होंने कहा कि रोको, रोको। हम भूल गये। एक दफा और कह दो वह प्रार्थना एक दफा और बता दो।

तब उस पुरोहित को थोड़ी बुद्धि आयी कि जो पानी पर चलकर आ गये इनकी ही प्रार्थना ठीक होगी, इनकी प्रार्थना पहुंच गयी है। उसने उनके चरण छुए और कहा, मुझे क्षमा करो, मैंने बड़ा अपराध किया है। तुम्हारी प्रार्थना पहुंच गयी है; तुम अपनी प्रार्थना जारी रखो। मेरी प्रार्थना भूल जाओ, क्योंकि मैं वह प्रार्थना जिंदगी— भर से कर रहा हूं अभी भी मुझे नाव में बैठना पड़ता है। अभी मुझे इतनी श्रद्धा नहीं कि उस प्रार्थना के सहारे मैं पानी में चल जाऊंगा। तुम वापस जाओ, मुझे माफ कर देना! मैंने तुम्हारे और तुम्हारे परमात्मा के बीच बड़ी बाधा डाली। मैंने पाप किया।

भाषा का मूल्य नहीं है, न शास्त्र का मूल्य है—मूल्य है हृदय का, हार्दिकता का। इसलिए कृष्ण कहते हैं : कोई किसी ढंग से आए, किसी बहाने आए, किसी मार्ग से आए, किसी दिशा से आए, सब मुझ तक पहुंच जाते हैं। परमात्मा परम शिखर है। पहाड़ पर बहुत रास्ते शिखर की तरफ जाते हैं, तुम किसी भी रास्ते से चल पड़ो, बस चलते रहना, पहुंच जाओगे। रास्तों की इतनी मूल्यवत्ता नहीं है, जितना लोग समझ बैठे हैं। लोग इतना झंझट मचाकर रखते हैं, कि कौन—सा रास्ता ठीक है। रास्ता ठीक नहीं होता है, चलनेवाला ठीक होता है या गलत होता है। रास्ते तो बस रास्ते हैं। रास्ते तो मुर्दा हैं। चलनेवाला हो तो गलत रास्तों से पहुंच जाता है और न चलनेवाला हो तो ठीक रास्तों पर भी मकान बना लेता है, वहीं बैठकर रह जाता है। ठीक और गलत रास्ते क्या होंगे!.....osho

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