रविवार, 2 अक्तूबर 2016

= विन्दु (२)८६ =

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॥ दादूराम सत्यराम ॥
**श्री दादू चरितामृत(भाग-२)** लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥

**= विन्दु ८६ =**

**= गोपाल जोशी को उपदेश =**
डीडवाना में एक नागौरी गोपाल जोशी थे, उनकी भी दादूजी पर बहुत श्रद्धा थी । वे दादूजी के दर्शन करने आये थे और प्रणाम करके हाथ जोड़े हुए मन में यह शंका लेकर कि संसार के प्राणी क्यों बारंबार मरते हैं ? प्रभु का भजन करके प्रभु को क्यों नहीं प्राप्त होते, दादूजी के सामने बैठे थे । दादूजी ने उनके मन की बात जानकार उनकी शंका निवृत्त करने के लिये उनको यह पद सुनाया - 
"भाई रे यूं बिनशै संसारा, 
काम क्रोध अहंकारा ॥ टेक ॥ 
लोभ मोह मैं मेरा, मद मत्सर बहुतेरा ॥ १ ॥ 
आपा पर अभिमाना, केता गर्भ गुमाना ॥ २ ॥ 
तीन तिमिर नहिं जाहीं, पंचों के गुण माँहीं ॥ ३ ॥ 
आतम राम न जाना, दादू जगत दीवाना ॥ ४ ॥" 
अरे भाई ! संसारी प्राणी इस प्रकार नष्ट होते हैं - काम, क्रोध, अहंकार, लोभ, मोह, मैं और मेरापन, मद, अति मात्रा में मत्सर, अपने पराये का अभिमान, गुण, कला आदि के कितने ही प्रकार के गर्व, बल आदि का घमण्ड, हृदय में रखते हैं और पंच ज्ञानेन्द्रियों के विषयों में अनुरक्त रहते हैं । इससे मूला, तूला और लेशा अविद्यारूप तीन प्रकार का अंधकार नष्ट नहीं होता है और उक्त त्रिविध अंधकार के न नष्ट होने से अपने आत्मस्वरूप राम को न जानकर मायिक सुखों में पागल हुये रहते हैं, इसीलिये बारंबार जन्म, मृत्यु को प्राप्त होते हैं । गोपाल जोशी अपने मनमें स्थित शंका का बिना प्रश्न किये ही समाधान हो जाने पर अति प्रसन्न हुये और दादूजी पर उनकी और भी अधिक श्रद्धा बढ़ी । फिर वे दादूजी महाराज को सस्नेह बोलते हुये दंडवत करके चले गये । 
(क्रमशः)

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