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॥ दादूराम सत्यराम ॥
**श्री दादू चरितामृत(भाग-२)** लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
**= विन्दु ८६ =**
**= अवधूत संत का आना =**
फिर एक अवधूत संत आये और प्रणामादि शिष्टाचार के पश्चात् अवधूत ने इधर - उधर की बातें सुनाना आरम्भ किया तब कुछ देर सुनकर फिर दादूजी ने यह पद बोला -
"अवधू बोल निरंजन वाणी,
तहँ एकहि अनहद जाणी ॥ टेक ॥
तहँ वसुधा का बल नांहीं,
तहँ गगन घाम नहिं छाहीं ।
तहँ चन्द सूर नहिं जाई,
तहँ काल काया नहिं भाई ॥ १ ॥
तहँ रैणि दिवस नहिं छाया,
तहँ वायु वरण नहिं माया ।
तहँ उदय अस्त नहिं होई,
तहँ मरे न जीवे कोई ॥ २ ॥
तहँ नाहीं पाठ पुराना,
तहँ अगम निगम नहिं जाना ।
तहँ विद्यावाद न ज्ञाना,
नहिं तहाँ योग रु ध्याना ॥ ३ ॥
तहँ निराकार निज ऐसा,
तहँ जान्या जाइ न जैसा ।
तहँ सब गुण रहिता गहिये,
तहँ दादू अनहद कहिये ॥ ४ ॥"
हे अवधूत ! निरंजन ब्रह्म संबंधी वाणी बोलो, अन्य सब त्याग दो । कारण, अन्तर्मुख स्थिति में अनुभव द्वारा एक असीम ब्रह्म सम्बन्धी वाणी ही जानने में आती है । समाधि में पृथ्वी का जन धनादि बल नहीं है । आकाश, धूप और बादल छाया नहीं है । वहाँ चन्द्र, सूर्य नहीं जा सकते । हे भाई ! वहाँ रहते हुये शरीर को काल नहीं खाता है । वहाँ रात्रि, दिन और वृक्ष की छाया नहीं हैं । न वायु चलता है, न माया और मायिक रूप, रंगादि हैं । वहाँ तारे आदि का उदय अस्त नहीं होता है । न कोई मरता है, न कोई जीवित रहता है । न पुराण पाठ होता है । न वेद शास्त्र जानने में आते हैं । न नाना विद्या हैं, न जल्प, वितंडादि वाद हैं । न मन इन्द्रियों के ज्ञान हैं, न हठ योगादि योग हैं, न मूर्ति आदि का ध्यान है । वहाँ तो जैसा मन इन्द्रियों से न जाना जाय, ऐसा निराकार निज स्वरूप है । वहाँ जो सब गुणों से रहित है, उसे स्वस्वरूप करके ग्रहण करो और उसी असीम का कथन करो ।
(क्रमशः)
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