मंगलवार, 18 अक्तूबर 2016

= परिचय का अंग =(४/१३९-१४१)


॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥
**श्री दादू अनुभव वाणी** टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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**= परिचय का अँग ४ =** 
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चहार१ मँजिल२ बयान३ गुफतम४, दस्त५ करद:६ बूद७ ।
पीराँ८ मुरीदाँ९ खबर करद:, जा१० राहे११ माबूद१२॥१३९॥
१३९ में उक्त चार अवस्थाओं का उपसँहार कर रहे हैं - चार१ अवस्थाओं२ की बात भली प्रकार वर्णन३ करके कह दी४ है । सिद्ध८ सँतों ने शिष्यों९ को परमात्मा१२ के स्थान१० का मार्ग११ हस्तगत५ कर६ दिया अर्थात् बता दिया है७ । चार अवस्थाओं का सँक्षिप्त स्वरूप - 
"शरीअत सेव शरीर की, तरीकत बे परवाह । 
मारफत माँहीं रहे, हकीकत मिल जाय ।"
पहली प्राण पशू नर कीजे, साच झूठ सँसार ।
नीति अनीति भला बुरा, शुभ अशुभ निर्धार ॥१४०॥
१४० - १४४ में हिन्दी भाषा भाषियों के लिये उक्त चार अवस्थाओं का हिन्दी में वर्णन कर रहे हैं - प्रथम विवेक रहित सँसारी प्राणी पशु के समान ही होता है । अत: विचारशील सज्जनों को चाहिये - उन्हें सत्य - मिथ्या, नीति - अनीति, भला - बुरा, शुभ और अशुभ के परिणाम का निर्णय सुनाकर मिथ्या, अनीति, बुराई और अशुभ कर्मों से हटाकर सत्य, नीति, भलाई और शुभ कर्मों में लगा के मनुष्य बनावें । यह मानवता ही प्रथमावस्था है ।
सब तज देखि विचार कर, मेरा नाहीं कोइ ।
अनुदिन१ राता राम सौं, भाव भक्ति रत होइ ॥१४१॥
जिज्ञासु ने आत्मानात्म विचार द्वारा देख करके सोचा - अनात्म - सँसार तो मिथ्या है । इन स्त्री, पुत्र, तन, धनादि में मेरा कोई भी नहीं है । इसलिए सबको त्याग कर प्रतिदिन१ भगवत् - प्राप्ति के साधन - भाव, भक्ति आदि में लग कर भगवान् में ही रत रहता है । यह जिज्ञासु की शुद्धाचरण रूप स्थिति ही दूसरी अवस्था है ।
(क्रमशः)

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