सोमवार, 17 अक्तूबर 2016

= सर्वंगयोगप्रदीपिका (च.उ. ३५/३६) =

🌷🙏🇮🇳 *#daduji* 🇮🇳🙏🌷
🙏 *श्री दादूदयालवे नमः ॥* 🙏
🌷 *#श्रीसुन्दर०ग्रंथावली* 🌷
रचियता ~ *स्वामी सुन्दरदासजी महाराज*
संपादक, संशोधक तथा अनुवादक ~ स्वामी द्वारिकादासशास्त्री
साभार ~ श्री दादूदयालु शोध संस्थान
अध्यक्ष ~ गुरुवर्य महमंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमारामजी महाराज
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*सर्वांगयोगप्रदीपिका(ग्रंथ२)*
**ज्ञानयोग नामक = चतुर्थ उपदेश =** 
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*अहं जगनाथ अहं जगदीशा ।*
*अहं जगपत्ति अहं जगईशा ।* 
*अहं गोविंद अहं गोपालं ।*
*अहं ज्ञानधन अहं निरालं ॥३५॥* 
मैं इस जगत् का नियन्ता तथा मालिक हूँ । मैं जगपट्टी हूँ अत एव जगत् का सम्पत्ति के रूप में उपभोक्ता हूँ । मैं सभी इन्द्रियों(ज्ञानेन्द्रियों, कर्मेन्द्रियों) का स्वामी तथा पालक हूँ । मैं पूर्ण ज्ञानस्वरूप तथा निरालम्ब(निरपेक्ष) हूँ ॥३५॥ 
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*= दोहा =*
*अहं परम आनन्द मय, अहं ज्योति निज सोइ ।* 
*ब्रह्मयोग१ ब्रह्महि भया, दुबिध्या रही न कोइ ॥३६॥*
(१. यह ब्रह्मयोग का वर्णन ‘ज्ञानयोग’ और ‘अद्वैतयोग’ के बीच में ठीक ही रखा है । मानो यह विचली मंजिल वा भूमिका है । आत्म-अनात्म का विवेक होने के पीछे ज्ञानयोग का उदय होता है । ज्ञानयोग में दृढ़ हो जाने पर उसे ब्रह्मयोग की भूमिका प्राप्त होती है । इसमें भलीभाँति स्थिर हो जाने पर अद्वैतयोग मिलता है तब उस भूमिका या अवस्था में तुरियातीत की गति मिलती है ।) 
मैं परमानन्दयुक्त हूँ । मैं स्वयं ज्योति हूँ ।(अर्थात् मैं अपने ही प्रकाश से प्रकाशित हूँ, दूसरे से प्रकाशित होने की अपेक्षा नहीं ।) इस ब्रह्मयोग की साधना से योगी ब्रह्मस्वरूप ही हो जाता है । उसे किसी प्रकार की दुविधा(द्वैतप्रपंच) नहीं रह जाती ॥३६॥ 
(क्रमशः)

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