मंगलवार, 18 अक्तूबर 2016

= परिचय का अंग =(४/१४२-44)

॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥
**श्री दादू अनुभव वाणी** टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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**= परिचय का अँग ४ =** 
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अँबर धरती सूर शशि, सांई सब लै लावै अँग ।
यश कीरति करुणा करे, तन मन लागा रँग ॥१४२॥
आकाश, पृथ्वी, सूर्य, चन्द्रमादि सबको ही भगवान् स्वरूप जान कर अपने अन्त:करण की वृत्ति भगवान् में ही लगाता है, भगवान् का ही सृष्टि रक्षणादि रूप यश गान करता है । भक्तवत्सलतादि कीर्ति कथन करता है और विरह पूर्वक दर्शनार्थ विनय करता है तथा इस अवस्था में साधक के शरीर पर भगवत् रूप सँत - सेवा का और मन पर भगवत् - ध्यान का गहरा रँग लगा रहता है । साधक की यह अध्यात्म स्थिति ही तीसरी अवस्था है ।
परम तेज तहं मैं गया, नैनहुं देख्या आइ ।
सुख सँतोष पाया घणा, ज्योतिहिं ज्योति समाइ ॥१४३॥
जहां परम तेज स्वरूप ब्रह्म की अनुभूति होती है, उसी समाधि अवस्था में जब "मैं" रूप जीवात्मा गया, तब वहां पहुंचते ही अपने ज्ञान - नेत्र से ब्रह्म का साक्षात्कार किया । साक्षात्कार होते ही महान् सँतोष के सहित परमानन्द की प्राप्ति हुई और ब्रह्म रूप व्यापक ज्योति में आत्म - ज्योति समा गई, जीवात्मा - परमात्मा का अभेद हो गया । यह अभेद स्थिति ही चतुर्थावस्था है ।
अर्थ चार अस्थान का, गुरु शिष्य कह्या समझाइ ।
मारग सिरजनहार का, भाग बड़े सो जाइ ॥१४४॥
चारों अवस्थाओं का अर्थ गुरुदेव ने कह कर शिष्य को समझा दिया । यह परमात्मा की प्राप्ति का मार्ग है । जो बड़भागी होता है वही इस मार्ग से जाकर परमात्मा को अभेद रूप से प्राप्त होता है ।
(क्रमशः)

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