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॥ दादूराम सत्यराम ॥
**श्री दादू चरितामृत(भाग-२)** लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
**= विन्दु ८६ =**
एक नाथ संत और एक अवधूत भी आये थे । उन दोनों का क्रम से परिचय दिया जा रहा है । नाथ संत दादूजी के पास आये और प्रणाम करके बैठ गये ।
**= नाथ संत के प्रश्न का उत्तर =**
फिर नाथ संत ने प्रश्न किया - आपने योग साधन कहां किया है ? तथा महारस का उपभोग किया है या नहीं किया ? नाथ संत के उक्त प्रश्नों का उत्तर दादूजी ने इस पद से किया -
"इहै परम गुरुयोगं, अमी महारस भोगं ॥ टेक ॥
मन पवना स्थिर साधं, अविगत नाथ अराधं,
तहँ शब्द अनाहद नादं ॥ १ ॥
पंच सखी परमोधं, अगम ज्ञान गुरु बोधं,
तहँ नाथ निरंजन शोधं ॥ २ ॥
सद्गुरु मांहिं बतावा, निराधार घर छावा,
तहँ ज्योति स्वरूपी पावा ॥ ३ ॥
सहजैं सदा प्रकाशं, पूरण ब्रह्म विलासं,
तहँ सेवक दादू दासं ॥ ४ ॥
हमारा इस शरीर में ही परम गुरु का बताया हुआ योग साधन होता है और शरीर में ही ज्ञानामृत रूप महारस का उपयोग होता है । जब साधन द्वारा मन प्राण को स्थिर करके इन्द्रियों के अविषय परमात्मा की उपासना की जाती है, तब अनाहत नाद रूप शब्द सुनने में आते हैं । पंच ज्ञानेन्द्रिय रूप सखियें विषया - शक्ति रूप निद्रा से जागती हैं । गुरु उपदेश द्वारा आत्मस्वरूप ब्रह्म का परोक्ष ज्ञान होता है फिर साधक हृदय में निदिध्यासन द्वारा निरंजन प्रभु को खोज करके उसे अभेद रूप से प्राप्त करता है । इस प्रकार सद्गुरु ने शरीर के भीतर ही बताया है और हमारा मन भी उस निराधार ब्रह्मरूप घर पर ही स्थित हुआ है, तब वहां ही ज्योति स्वरूप ब्रह्म हमें प्राप्त हुआ है और अनायास ही सदा प्रकाश स्वरूप पूर्णब्रह्म के साक्षात्कार का आनन्द प्राप्त हो रहा है । हम वहाँ वृत्ति द्वारा उनके सेवक रूप से रहते हैं । ऐसा ही हमारा वर्तमान योग साधन चलता रहता है । नाथ संत उक्त पद सुनकर समझ गये कि ये तो उच्चकोटि के संत हैं फिर प्रणाम करके भोजन किया और विश्राम करके विचर गये ।
(क्रमशः)
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