शुक्रवार, 7 अक्तूबर 2016

= परिचय का अंग =(४/११४-१६)

॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥
श्री दादू अनुभव वाणी टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
.
**= परिचय का अँग ४ =**
.
कर्त्ता - कामधेनु
कामधेनु दुहि पीजिये, अकल अनूपम एक ।
दादू पीवे प्रेम सौं, निर्मल धार अनेक ॥११४॥
११६ - १२१ में ब्रह्म - कामधेनु का दर्शन - दुग्धपान करने की प्रेरणा कर रहे हैं - साधको ! कला, विभाग और उपमा रहित अद्वैत, कामनाओं को पूर्ण करने वाली ब्रह्म - कामधेनु का दर्शन - दुग्ध ध्यान - दोहन द्वारा पान करो । हम तो पूर्ण प्रेम से ध्येय, ज्ञेय और आत्मा रूप आदि अनेक निर्मल विचारधाराओं द्वारा दर्शन - दुग्ध पान करते हैं अर्थात् दर्शन करते ही रहते हैं ।
कामधेनु दुहि पीजिये, ताको लखे न कोइ ।
दादू पीवै प्यास सौं, महारस मीठा सोइ ॥११५॥
जो कामनाओं को पूर्ण करने वाली ब्रह्म - कामधेनु है, उसे कोई भी बहिर्मुख प्राणी नहीं देख सकता । साधको ! तुम अन्तर्मुख वृत्ति करके ध्यान - दोहन द्वारा उसके दर्शन - दुग्ध का पान करो । जो कोई दर्शन की उत्कृष्ट अभिलाषा वाला ज्ञान द्वारा ब्रह्म - दर्शन - महारस पान करता है तो उसके लिये वह ब्रह्म - दर्शन अति मधुर हो जाता है ।
कामधेनु दुहि पीजिये, अलख रूप आनन्द ।
दादू पीवै हेत सौं, सुषमन लागा बन्द ॥११६॥
साधको ! समाधि अवस्था में जाकर मन इन्द्रियों के अविषय, आनन्द स्वरूप ब्रह्म - कामधेनु का दर्शन - दुग्ध तदाकार वृत्ति - दोहन द्वारा पान करो । सुषुम्ना नाड़ी द्वारा प्राण सहस्रार चक्र में जाकर निरुद्ध हो जाने से हमारा मन तो परम प्रेम से उसका पान करता है ।
(क्रमशः)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें