सोमवार, 3 अक्तूबर 2016

=२६=

#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
दादू यहु मन बरजि बावरे, घट में राखि घेरि ।
मन हस्ती माता बहै, अंकुश दे दे फेरि ॥ 
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साभार ~ Ramjibhai Jotaniya
मन के हारे हार है, मन के जीते जीत- प्रभु शरणं
बहुत समय पहले एक व्यापारी ने बढ़िया नस्ल का एक घोड़ा खरीदा। उसे लेकर वह अपने घर पहुँचा और अपने पंडित मित्र को उसे देखने के लिए बुलाया। 
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वह बोला- घोड़ा तो अच्छी नस्ल का है, लेकिन इसकी लगाम कभी ढीली मत छोड़ना। वरना कई बार सहूलियत की चीजें नुकसान भी पहुँचा देती हैं।
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व्यापारी बोला- तू चिंता मत कर। मैं ऐसा ही करूँगा। इसके बाद वह व्यापारी व्यापार के काम में घोड़े का भरपूर उपयोग करने लगा। 
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एक बार पंडित किसी यजमान के यहाँ जाने के लिए घर से तेजी से निकला कि सामने से उसे व्यापारी दोस्त घोड़े से चिपककर बैठा हुआ दिखाई दिया।
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घोड़ा सरपट भागता हुआ आ रहा था। पंडित ने सोचा कि इसे कहीं जल्दी पहुँचना होगा। यदि यह मुझे भी साथ ले ले तो अच्छा रहेगा। मैं भी समय रहते पहुँच जाऊँगा। 
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उसने व्यापारी को पुकारा- बंधु, इतनी तेजी से कहाँ जा रहे हो? इस पर वह बिना रुके बोला- यह मुझे नहीं, घोड़े को पता है। मुझे जिस ओर जाना था, यह उसके विपरीत दिशा में ले जा रहा है। 
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पंडित को कुछ समझ में नहीं आया। वह सोच ही रहा था कि थोड़ा आगे जाकर घोड़ा तेजी से उछला जिससे व्यापारी पास के एक पोखर में जा गिरा, लेकिन उसका पाँव रकाब में ही उलझा रह गया, जिसे उसने जैसे-तैसे छुड़ाया। 
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पंडित ने उसके पास पहुँचकर उसे पोखर में से निकाला। व्यापारी पूरी तरह से कीचड़ में लथपथ हो चुका था। उसने बताया कि रंगपंचमी के जुलूस को देखकर घोड़ा बिदक गया, जिसकी वजह से उसकी यह दशा हुई। 
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पंडित बोला- मैंने तो पहले ही तुझे कहा था कि हमेशा लगाम को कस कर रखना। खैर, छोड़। चल घर चलते हैं। 
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दोस्तो, यही हालत होती है घोड़े को अपने वश में न रखने वाले की। कहीं का कहीं पहुँचाता है और अंततः कीचड़ में ले जाकर गिरा देता है। 
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यहाँ हम वास्तविक घोड़ों की नहीं, मन के घोड़ों की बात कर रहे हैं, जो वास्तविक घोड़ों से भी कई गुना ज्यादा सरपट दौड़ते हैं। और क्यों न दौड़ें। 
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जब इन्हें बेलगाम छोड़ देंगे तो जहाँ मर्जी आएगी, जब मर्जी आएगी, दौड़ जाएँगे। यही कारण है कि कई बार हम सोचते हैं कि हम कोई गलत काम नहीं करेंगे या कोई लत नहीं पालेंगे। लेकिन हम सिर्फ सोचते रह जाते हैं और मन के घोड़े हमें उन्हीं द्वारों पर छोड़ आते हैं, जहाँ से हम भागना चाहते थे। 
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संकलन: विपिन चंद्र पांडेय 
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जीवन का सही मार्ग तो आध्यात्म से ही मिलेगा, जो इसे झुठला रहा है वह ऐसे भ्रम का शिकार है जैसे हरे भरे वृक्ष पर लिपटी अमरबेल। अमरबेल कब उसी पेड़ को सुखा दे जिसपर आश्रय पाया है, वृक्ष न जानता है न मानता है। इसलिए प्रभु के शरण में रहिए प्रभु शरणं के साथ बने रहिए। 🌷🌷

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