शनिवार, 15 अक्तूबर 2016

= विन्दु (२)८६ =

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॥ दादूराम सत्यराम ॥
**श्री दादू चरितामृत(भाग-२)** लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥

**= विन्दु ८६ =**

**= खोजी दादू ज्ञान गोष्टी =**
खोजीजी ने दादूजी से पूछा - स्वामिन् ! जीव और ब्रह्म कैसे रहते हैं ? यह बताइये । दादूजी बोले - 
"दादू जल में गगन गगन में जल है, पुनि वै गगन निरालं । 
ब्रह्म जीव इहिं विधि रहैं, ऐसा भेद विचारं ॥"
जैसे जल में प्रतिबिम्ब रूप से आकाश विद्यमान है, तथा जल की सत्ताआधार भूत व्यापक आकाश में हैं, अतः जल भी आकाश में है । इस प्रकार बाहर भीतर आकाश का जल से सम्बन्ध होने पर भी आकाश जल के आर्दतादि धर्मों से युक्त नहीं होता, वैसे ही जीव(बुद्धि) में शुद्ध कूटस्थ चैतन्य प्रतिबिम्ब रूप से विद्यमान है तथा जीव(बुद्धि) भी आधार भूत शुद्ध चैतन्य के आश्रित है । अतः बाहर भीतर जीव का ब्रह्म से संबन्ध होने पर भी वह ब्रह्म जीव(अन्तःकरण) के धर्म अल्पज्ञत्वादि से युक्त नहीं होता है । जीव ब्रह्म की स्थिति रूप रहस्य का विचार इसी प्रकार करना चाहिये । खोजीजी ने पुनः प्रश्न किया - स्वामिन् ! आत्मा और राम कहां रहते हैं ? दादूजी ने कहा - 
"ज्यों दर्पण में मुख देखिये, पानी में प्रतिबिम्ब । 
ऐसे आतम राम हैं, दादू सब ही संग ॥" 
जैसे दर्पण में मुख का जल में सूर्यादि का प्रतिबिम्ब दिखाई देता है, वैसे ही ब्रह्म का प्रतिबिम्ब अन्तःकरण में आत्मरूप से रहता है । उसी की सत्ता से ये सब व्यवहार चलता है । अतः आत्मरूप(ब्रह्म) सबके साथ रहते हैं । 
(क्रमशः)

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