रविवार, 9 अक्तूबर 2016

= परिचय का अंग =(४/१२२-३)

॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥
**श्री दादू अनुभव वाणी** टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
.
**= परिचय का अँग ४ =** 
.
*परिचय आत्म बल्ली तरु*
तरुवर शाखा मूल बिन, धरती पर नाँहीं ।
अविचल अमर अनन्त फल, सो दादू खाहीं ॥१२२॥
१२२ - १२६ में ब्रह्म, आत्मा का वृक्ष - बेलि के रूप में परिचय दे रहे हैं - शुद्ध ब्रह्म - वृक्ष पृथ्वी पर नहीं लगता, कारण, वह तो सँपूर्ण भौतिक प्रपँच का अधिष्ठान है, अधिष्ठान विवर्त्त के आश्रय कैसे रह सकता है । न उसका कोई कारण रूप मूल और न कार्य रूप शाखा है । शुद्ध ब्रह्म किसी का कारण - कार्य नहीं हो सकता । उसी अविचल, अनन्त, ब्रह्म - वृक्ष का साक्षात्कार रूप फल हम साधक लोग खाते हैं अर्थात् ब्रह्मानन्द का अनुभव करते हैं ।
तरुवर शाखा मूल बिन, धर अम्बर न्यारा ।
अविनाशी आनन्द फल, दादू का प्यारा ॥१२३॥
शुद्ध ब्रह्म - वृक्ष माया - मूल और प्रपँच - शाखाओं से रहित है । पृथ्वी और आकाश में व्यापक रूप से रहता हुआ भी इनसे भिन्न है । उसका फल साक्षात्कार से जन्य अविनाशी आनन्द है, वह हमें बहुत प्यारा है ।
(क्रमशः)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें