शुक्रवार, 14 अक्तूबर 2016

= सर्वंगयोगप्रदीपिका (च.उ. २९/३०) =

🌷🙏🇮🇳 *#daduji* 🇮🇳🙏🌷
🙏 *श्री दादूदयालवे नमः ॥* 🙏
🌷 *#श्रीसुन्दर०ग्रंथावली* 🌷
रचियता ~ *स्वामी सुन्दरदासजी महाराज*
संपादक, संशोधक तथा अनुवादक ~ स्वामी द्वारिकादासशास्त्री
साभार ~ श्री दादूदयालु शोध संस्थान
अध्यक्ष ~ गुरुवर्य महमंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमारामजी महाराज
https://www.facebook.com/DADUVANI
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*सर्वांगयोगप्रदीपिका(ग्रंथ२)*
**ज्ञानयोग नामक = चतुर्थ उपदेश =** 
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*सब संसार आप मैं देखै ।*
*पूरण आपु जगत महिं पेखै ।* 
*आपुहि करता आपुहि हरता ।*
*आपुहि दाता आपुहि भरता ॥२९॥*
योगी को, इस योग का साक्षात्कार हो जाने पर, सम्पूर्ण ब्रहमाण्ड अपने अन्दर दिखायी देने लगता है, दूसरी तरफ वह समग्र ब्रहमाण्ड में अपना ही प्रतिबिम्ब देखता है । तब उसे यह भान होता है कि वह स्वयं इस सृष्टि का कर्ता है, संहारक है, पालक है, दाता-भोक्ता है ॥२९॥
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*आपू ब्रह्म कछु भेद न आनैं ।*
*अहं ब्रह्म ऐसैं करि जानैं ।* 
*अहं परात्पर अहं अखण्डा ।*
*व्यापक अहं सकल ब्रह्मण्डा ॥३०॥* 
वह अपने और ब्रह्म में कोई भेद नहीं देखता, अपितु ‘मैं ब्रह्म हूँ’ ऐसा वह अनुभव करता है । वह समझता है कि मैं ही पर से परतर हूँ, मैं अखण्ड हूँ, मैं अविनाशी हूँ, सर्वव्यापी हूँ, सकल ब्रह्माण्ड मेरा ही वासस्थान है ॥३०॥ 
(क्रमशः)

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