शुक्रवार, 14 अक्तूबर 2016

=३७=

卐 सत्यराम सा 卐
दादू चन्दन कद कह्या, अपना प्रेम प्रकाश ।
दह दिशि प्रगट ह्वै रह्या, शीतल गंध सुवास ॥ 
दादू पारस कद कह्या, मुझ थीं कंचन होइ ।
पारस परगट ह्वै रह्या, साच कहै सब कोइ ॥ 
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साभार ~ Sriji/ http://sriji.org/?p=978&lang=hi_IN

भगवद्भक्तोंकी महिमा:
भगवान के भक्तों की महिमा अनन्त और अपार है। श्रुति, स्मृति, इतिहास, पुराण आदि में जगह-जगह उनकी महिमा गायी गयी है; किन्तु उसका किसी ने पार नहीं पाया। वास्तव में भक्तों की तथा उनके गुण, प्रभाव और सङ्ग की महिमा कोई वाणी के द्वारा गा ही नहीं सकता। शास्त्रों में जो कुछ कहा गया है अथवा वाणी के द्वारा जो कुछ कहा जाता है उससे भी उनकी महिमा अत्यन्त बढक़र है। रामचरितमानस में स्वयं श्रीभगवान ने भाई भरत से संतों के लक्षण बताते हुए उनकी इस प्रकार महिमा कही है—

बिषय अलंपट सील गुनाकर । पर दुख दुख सुख सुख देखे पर ॥
सम अभूतरिपु बिमद बिरागी । लोभामरष हरष भय त्यागी ॥
कोमलचित दीनन्ह पर दाया । मन बच क्रम मम भगति अमाया ॥
सबहि मानप्रद आपु अमानी । भरत प्रान सम मम ते प्रानी ॥
बिगत काम मम नाम परायन । सांति बिरति बिनती मुदितायन ॥
सीतलता सरलता मयत्री । द्विज पद प्रीति धर्म जनयत्री ॥
सम दम नियम नीति नहिं डोलहिं । परुष बचन कबहूँ नहिं बोलहिं ॥
निंदा अस्तुति उभय सम ममता मम पद कंज ।
ते सज्जन मम प्रानप्रिय गुन मंदिर सुख पुंज॥
भगवान के भक्त क्षमा, शान्ति, सरलता, समता, सन्तोष, पवित्रता, चतुरता, निर्भयता, शम, दम, तितिक्षा, धृति, त्याग, तेज, ज्ञान, वैराग्य, विनय, प्रेम और दया आदि गुणों के सागर होते हैं।

भगवान के भक्तोंका हृदय भगवान की भाँति वज्र से भी बढक़र कठोर और पुष्पों से बढक़र कोमल होता है। अपने ऊपर कोई विपत्ति आती है तो वे भारी-से-भारी विपत्ति को भी प्रसन्नता से सह लेते हैं। भक्त प्रह्लाद पर नाना प्रकार के प्रहार किये गये, पर वे किञ्चित भी नहीं घबड़ाये और प्रसन्नता से सब सहते रहे ऐसी स्थिति में भक्तों का हृदय वज्र से भी कठोर बन जाता है, किन्तु दूसरों का दु:ख उनसे नहीं सहा जाता, उस समय उनका हृदय पुष्प से भी बढक़र कोमल हो जाता है। सर्वत्र भगवद बुद्धि होने के कारण किसी के साथ उनका वैर या द्वेष तो हो ही नहीं सकता, और न किसी पर उनकी घृणा ही होती है। उन महापुरुषों के साथ कोई कैसा ही क्रूर व्यवहार क्यों न करे, वे तो बदले में उसका हित ही करते रहते हैं। दया के तो वे समुद्र ही होते हैं। दूसरों के हित के लिये वे अपने आपको महॢष दधीचि और राजा शिबि की भाँति बलिदान कर सकते हैं। दूसरों की प्रसन्नतासे उन्हें बड़ी प्रसन्नता होती है, सब जीवोंके परम हितमें उनकी स्वाभाविक ही प्रीति होती है। दूसरों के हितके मुकाबले वे मुक्ति को भी कोई चीज नहीं समझते।

इसपर एक दृष्टान्त है—एक धनी दयालु दानी पुरुष नित्य हजारों अनाथ, गरीब और भिक्षुकों को भोजन देता था। एक दिन उसका सेवक, जो कि बड़ा कोमल और दयालु स्वभावका था, मालिक के साथ लोगों को भोजन परोसने का काम करने लगा; समय बहुत अधिक होने के कारण मालिक ने सेवक से कहा कि ‘जाओ, तुम भी भोजन कर लो।’ यह सुनकर सेवक ने कहा, ‘स्वामिन् ! मैं इन सबको भोजन कराने के बाद भोजन कर लूँगा, आपको बहुत समय हो गया है इसलिये आप विश्राम कर सकते हैं। मुझे जितना आनन्द इन दु:खी अनाथों के भोजन कराने में आता है उतना आनन्द अपने भोजन करने में नहीं आता।’ किन्तु मालिक कब जानेवाला था, दोनों मिलकर ही सब दुखी अनाथों को भोजन कराने लगे। थोड़ी देर के बाद उस धनिक ने फिर अपने उस सेवक से कहा कि ‘समय बहुत अधिक हो गया है। तुमको भी तो भोजन करना है, जाओ भोजन कर लो।’ यह सुनकर सेवक ने कहा, ‘प्रभो ! मैं बड़ा अकर्मण्य, स्वार्थी हूँ। इसीलिये आप मुझे इस कार्य को छोडक़र बार-बार भोजन करने के लिये कह रहे हैं। यदि मैं अपने भोजन करने की अपेक्षा इनको भोजन कराना अधिक महत्त्व की बात समझता तो क्या आप मुझे ऐसा कह सकते ? परन्तु अच्छे स्वामी अकर्मण्य सेवक को भी निबाहते ही हैं ! मैं आपकी आज्ञा की अवहेलना करता हूँ, आप मेरी इस धृष्टता की ओर ध्यान न देकर मुझे क्षमा करें। प्रभो ! इन अनाथ भूखोंके रहते मैं भोजन कैसे करूँ ?’ यह सुनकर मालिक बहुत प्रसन्न हुआ और सबको भोजन करा के अपने उस सेवक के साथ घर चला गया। वहाँ जाकर उसने सेवक से कहा—‘मैं तुम पर बहुत प्रसन्न हूँ, जो कहो, करने को तैयार हूँ, बोलो, तुम क्या चाहते हो ? तुम जो माँगोगे मैं तुम्हें वही दूँगा।’ सेवक ने कहा—‘प्रभो ? दीन-दुखियों को भोजन कराने का जो काम आप नित्य स्वयं करते हैं—मुझे तो वही काम सबसे बढक़र जान पड़ता है, अत एव वही मुझे दे दीजिये; काम चाहे अपने साथ रखकर करावें या मुझे अकेला रखकर।’

यह दृष्टान्त है। दाष्टार्न्त में ईश्वर को स्वामी, भक्त को सेवक, जिज्ञासुओं को भूखे अनाथ दुखी और उनको संसार से मुक्त करना ही भोजन कराना, एवं परमधाम को जानकर ही घर जाना समझना चाहिये।

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