शनिवार, 1 अक्तूबर 2016

=२१=


卐 सत्यराम सा 卐
मूर्ति घड़ी पाषाण की, किया सिरजनहार ।
दादू साच सूझै नहीं, यों डूबा संसार ॥ 
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साभार ~ Anand Nareliya
मैं तुमसे यह कहना चाहता हूं : 
जब तुम अपने बच्चे की सेवा कर रहे हो, अपनी पत्नी की, अपने पति की, अपने पिता की, अपनी मां की, अपने पड़ोसी की, अपनी गाय की, अपने घोड़े की, अपने पौधे की—तब तुम परमात्मा की सेवा कर रहे हो....
मंदिर की मूर्ति ने तुम्हें खूब धोखा दे दिया, वह सस्ती सेवा है, और मंदिर की मूर्ति को तुम जानते हो पत्थर है; इसलिए सेवा भी कर आते हो और भीतर तुम जानते हो—पत्थर पत्थर है, इसे झुठलाओगे कैसे? 
इसलिए तुम्हारी सेवा कभी हार्दिक नहीं हो पाती, जीवंत चारों तरफ मौजूद है, तुम कहां जा रहे हो? किस मंदिर में, किस मस्जिद में? किस मूर्ति की तलाश कर रहे हो? परमात्मा तुम्हारे घर आया हुआ है और तुम मंदिर जा रहे हो? 
परमात्मा तुम्हारे बेटे में मौजूद है, तुम्हारी माँ में, तुम्हारे पिता में, तुम्हारी पत्नी में, लेकिन नहीं, पत्नी, पिता, मां, बेटा—यह तो जंजाल है, यह माया है....
यह बड़े मजे की बात है, यह माया है और वह पत्थर की मूर्ति जो मंदिर में रखी है, वह सत्य है, आदमी कैसे धोखे खड़े कर लेता है, जीवंत झूठा है और मुर्दा सच है
और वह मुर्दा भी इन्हीं जीवंतों ने बनाया है; किसी मूर्तिकार ने गढा है; किसी पुजारी ने फूल चढ़ाये हैं इन मुर्दों के द्वारा, इन झूठों के द्वारा बनाया गया परमात्मा सच हो गया है, और बनानेवाले झूठे हो गये हैं....osho

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