卐 सत्यराम सा 卐
दादू कहै-उठ रे प्राणी जाग जीव, अपना सजन संभाल ।
गाफिल नींद न कीजिये, आइ पहुंता काल ॥
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साभार ~ जिज्ञासा jigyasa
महात्मा जड़ भरत जी एवं राजा रहूगण संवाद >>
गुणानुरक्तं व्यसनाय जन्तोः
क्षेमाय नैर्गुण्यमथो मनः स्यात्।।
भा. 5/11/8
विषयासक्त मन जीव को सांसारिक संकट मेँ फँसाता है और वही मन विषय रहित होने पर जीव को शान्तिमय मोक्ष की प्राप्ति कराता है । मनुष्य का मन जो विषयासक्त हो जाए तो वह सांसारिक दुःखदाता बन जाता है । वही मन विषयासक्त होने के बदले यदि ईश्वर भजन मेँ लीन हो जाय तो मोक्षदाता बन जाता है । विषयोँ का चिँतन करता हुआ मन उसमेँ फँस जाता है, तो उसका बंधन आत्मा अपने मेँ मान लेती है, स्वयं पर आरोपित कर लेती है । यह सब मन की दुष्टता है । अतः मन को परमात्मा मे स्थिर करना चाहिए ।
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महात्मा जड़भरत जी सिन्धु देश के राजा रहूगण से कहते है - हे राजन ! तुम मुझसे पूछते हो कि मै कौन हूँ ? किन्तु तुम स्वयं से पूछो कि तुम कौन हो ? तुम शुद्ध आत्मा हो, जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति इन तीनो अवस्थाओँ का साक्षी आत्मा है। ज्ञानी जन जगत को सत्य नहीँ मानते । संसार को वे मनः कल्पित मानते हैँ । जगत स्वप्न जैसा है । जिस प्रकार स्वप्न मिथ्या होने पर भी मनुष्य को रुलाता है, उसी प्रकार जगत भी मनुष्य को - जीव को रुलाता है । जैसे एक मनुष्य सो जाने पर स्वप्न देखता है कि एक भयानक शेर हमला करने वाला है, तो वह मनुष्य डर जाता है कि शेर मुझे खा जायेगा । ऐसा सोचकर वह चिल्लाने और रोने लगता है, तब किसी के जगाने पर वह देखता है कि वह तो सपना था और सपने के शेर से ही वह डर गया था। किन्तु स्वप्न असत्य है, यह मनुष्य की समझ मेँ कब आता है ?
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केवल तब कि जब वह जाग जाता है । कौन सा व्यक्ति जागा हुआ है ? विषयोँ से जिसका मन हट गया है, छूट गया है, वही जागा हुआ है । तुलसी दास ने भी कहा है -
"जानिय तबहि जीव जग जागा ।
जब सब विषय विलास विरागा ।।"
ये सब मन के खेल हैँ । मन को शुद्ध करने हेतु संत समागम करना चाहिए । महापुरुषोँ की सेवा से ब्रह्म की प्राप्ति होती है ।
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"महत्यादरजोऽभिषेकम्"
बिना सत्संग के ज्ञान की प्राप्ति नहीं होती,
"बिनु सत्संग विवेक न होई"
अपने स्वरुप का परिपूर्ण ज्ञान ही एक सत्य वस्तु है ।
"ब्रह्म सत्य जगत मिथ्या"
एक ब्रह्म ही सत्य है । ब्रह्म सत्यस्वरुप, भेद रहित परिपूर्ण आत्मस्वरुप है ।
विद्वतजन उसका भगवान वासुदेव, कृष्ण, दामोदर, नारायण, गोविन्द, राम, आदि नामों से वर्णन करते हैँ, अन्यथा जगत तो मिथ्या है । आत्मा का विवेकरुपी धन एक एक इन्द्रिय लूट लेती है । कोई सन्त मिलने पर संसार रुपी वन से बाहर निकालते हैँ ।
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