गुरुवार, 5 जनवरी 2017

= १९५ =

卐 सत्यराम सा 卐
दादू पहुँचे पूत बटाऊ होइ कर, नट ज्यों काछा भेख ।
खबर न पाई खोज की, हमको मिल्या अलेख ॥ 
दादू माया कारण मूंड मुंडाया, यहु तौ योग न होई ।
पारब्रह्म सूं परिचय नांहीं, कपट न सीझै कोई ॥ 
दादू जग दिखलावै बावरी, षोडश करै श्रृंगार ।
तहँ न सँवारे आपको, जहँ भीतर भरतार ॥ 
===========================
साभार ~ Anand Nareliya

******भगवान और मैं ????******
तुमने अब तक जाना तो अपने को मनुष्य है मनुष्य भी पूरा कहां ? कोई हिंदू है, कोई ईसाई है, कोई जैन है —उसमें भी खंड हैं, फिर हिंदू भी पूरा कहां ? उसमें भी कोई ब्राह्मण है, कोई शूद्र है, कोई क्षत्रिय है, कोई वैश्य है
फिर ब्राह्मण भी पूरा कहां ?

कोई देशस्थ, कोई कोकणस्थ फिर ऐसा कटता जाता, कटता जाता...
फिर उसमें भी स्त्री—पुरुष
फिर उसमें भी गरीब—अमीर
फिर उसमें भी सुंदर—कुरूप
फिर उसमें भी जवान—बूढ़ा
कितने खंड होते चले जाते हैं

आखिर में बचते हो तुम - बड़े क्षुद्र, बड़ी सीमा में बंधे, हजार—हजार सीमाओं में बंधे यह तुमने जाना है, आज अचानक मैं तुमसे कहता हूं ‘तुम भगवान हो’, श्रद्धा नहीं होती ...

तुम कहते हो : ‘भगवान और मैं कहां की बात कर रहे आप ? मैं तो जैसा अपने को जानता हूं, महापापी हूं हजार पाप करता हूं चोरी करता हूं जुआ खेलता हूं शराब पीता हूं।’

फिर भी मैं कहता हूं. तुम भगवान हो, ये तुमने जो सीमायें अपनी मान रखी हैं, ये तुम्हारी मान्यता में हैं और जिस दिन तुम हिम्मत करके इन सीमाओं के ऊपर सिर उठाओगे, अचानक तुम पाओगे कि सब सीमायें गिर गईं, तुम्हारा वास्तविक स्वरूप असीम है...
osho




कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें