रविवार, 5 मार्च 2017

= स्वप्नप्रबोध(ग्रन्थ ५/३-४) =

🌷🙏🇮🇳 *#daduji* 🇮🇳🙏🌷
🙏 *श्री दादूदयालवे नमः ॥* 🙏
🌷 *#श्रीसुन्दर०ग्रंथावली* 🌷
रचियता ~ *स्वामी सुन्दरदासजी महाराज*
संपादक, संशोधक तथा अनुवादक ~ स्वामी द्वारिकादासशास्त्री
साभार ~ श्री दादूदयालु शोध संस्थान
अध्यक्ष ~ गुरुवर्य महमंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमारामजी महाराज
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*(ग्रन्थ ५) स्वप्नप्रबोध*
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*स्वप्नै मांहि यती भयौ, स्वप्ने कामी होय ।*
*सुन्दर जाग्यौ स्वप्न तें, कामी यती न कोय ॥३॥*
स्वप्न में कोई गृहस्थ अपने बाल-बच्चों से वियुक्त होकर संन्यासी हो जाय या कोई संन्यासी यति गृहस्थ होकर कामसंभोग करने लगे; जागने पर वही व्यक्ति स्वप्न के पदार्थों की सच्चाई की गम्भीरता समझता हुआ गृहस्थ न अपने को संन्यासी समझता है, न संन्यासी अपने को गृहस्थ ॥३॥ 
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*स्वप्नै मैं पंडित भयौ, सुपनै मूरख जान ।*
*सुन्दर जाग्यौ स्वप्न तें, नहीं ज्ञान अज्ञान ॥४॥* 
कोई साधारण व्यक्ति स्वप्न में अपने को पण्डित समझने लगे या कोई पण्डित अपने को मूर्ख देखने लगे, जागने पर वे दोनों ही अपनी स्वप्नावस्था यत्किंचित् भी सत्य नहीं समझते, और वे अपने में पाण्डित्य और मूर्खता का विशेष(भेद) नहीं मानते, अपितु अपने को पूर्ववत् ही समझते हैं ॥४॥ 
(क्रमशः)

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