रविवार, 12 मार्च 2017

= १२३ =

卐 सत्यराम सा 卐
दादू कहतां कहतां दिन गये, सुनतां सुनतां जाइ ।
दादू ऐसा को नहीं, कहि सुनि राम समाइ ॥ 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! उपदेश करते - करते तो वक्ता की आयु समाप्त हो गई और उपदेश सुनते - सुनते श्रोताओं की आयु पूरी होती जा रही है । परन्तु उन वक्ता और श्रोताओं में ऐसा कोई भी नहीं है, जो परमेश्‍वर की महिमा कहते - कहते और सुनते - सुनते परमेश्‍वर में समा जाय । क्योंकि धारणा शक्ति बिना केवल कथन और श्रवण से स्वस्वरूप लाभ प्राप्त नहीं होता ॥ 
बिन करनी के कथन को, आदर नहीं भव मांहि । 
वेश्यां यदि पतिव्रत कहै, त्रियगण मानैं नांहि ॥ 
पढै सुनावैं और को, पंडित भये अनेक । 
मन समझावै आपणां, सो रज्जब कोई एक ॥ 
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*मध्य निरपक्ष*
मौन गहैं ते बावरे, बोलैं खरे अयान ।
सहजैं राते राम सौं, दादू सोई सयान ॥ 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! साधक पुरुषों को हितकारक और सीमित वचन बोलना ही युक्ति - युक्त है तथा प्रभु भजन से मौन रहना भी अयुक्त ही है । जो पुरुष संसार के वातावरण से अपनी वाणी का संयम नहीं रखता, वह दुनियावादी मौनियों से भी मन्द बुद्धिवाला कहा जाता है । अर्थात् ऐसे पुरुष ही चतुर और ज्ञानी हैं, जो सहज स्वभाव से ही परमेश्‍वर में लीन रहते हैं, तथा परमेश्‍वर सम्बन्धी वार्ता तो बोलते हैं, परन्तु सांसारिक वातावरण से मौन रहते हैं ॥ 
गिणे - मिणे बोले वचन, सो साधू तत सार । 
तुलसी खाली कुंभ ज्यूं, बकबो करै गँवार ॥ 
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*करुणा*
कहतां सुनतां दिन गये, ह्वै कछू न आवा ।
दादू हरि की भक्ति बिन, प्राणी पछतावा ॥ 
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव कहते हैं कि हे परमेश्‍वर ! हे नाथ ! सम्पूर्ण आयु आपकी भक्ति बिना निष्फल ही जा रही है । आप दया करके आपकी भक्ति का दान देना, जिससे हमारा पश्‍चात्ताप मिटे । अथवा हे जिज्ञासुओं ! परमेश्‍वर की भक्ति के अतिरिक्त व्यावहारिक कथन - श्रवण में जो दिन जाते हैं, सो सब विफल हैं, क्योंकि भक्ति बिना प्राणी को प्राणान्त समय में केवल पश्‍चात्ताप ही रहता है ॥ 
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सोई सेवक सब जरै, जेता घट परकास ।
दादू सेवक सब लखै, कहि न जनावै दास ॥ 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! जिसके हृदय में पूर्ण ब्रह्म का प्रकाश है, वही सच्चा जरणा करने वाला सेवक है । ऐसा सेवक स्वस्वरूप साक्षात्कार करके भी किसी को कहकर अपनी कीर्ति नहीं करवाता । ऐसे पुरुष सर्व शुभ - अशुभ को जानते हुए भी मौन रहते हैं और किसी को वचन आदि देकर सिद्धि चमत्कार नहीं दिखाते । केवल प्रभु का ही पतिव्रत रखते हैं और परमेश्वर से अतिरिक्त किसी का यश कीर्ति क्यों कहें ? वह परमात्मा अन्तर्यामी है, घट - घट की स्वयं सब जानते हैं, अब उनसे क्या कहना है ? 
(श्री दादूवाणी ~ जरणा/सांच का अंग)
चित्र सौजन्य ~ नरसिँह जायसवाल

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