रविवार, 12 मार्च 2017

= स्वप्नप्रबोध(ग्रन्थ ५/१७-८) =

🌷🙏🇮🇳 *#daduji* 🇮🇳🙏🌷
🙏 *श्री दादूदयालवे नमः ॥* 🙏
🌷 *#श्रीसुन्दर०ग्रंथावली* 🌷
रचियता ~ *स्वामी सुन्दरदासजी महाराज*
संपादक, संशोधक तथा अनुवादक ~ स्वामी द्वारिकादासशास्त्री
साभार ~ श्री दादूदयालु शोध संस्थान
अध्यक्ष ~ गुरुवर्य महमंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमारामजी महाराज
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*(ग्रन्थ ५) स्वप्नप्रबोध*
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*स्वप्नै मैं लौंका भयौ, स्वप्नै मांहि मथेंन ।*
*सुंदर जाग्यौ स्वप्न तें, ना कछु लेंन न देंन ॥१७॥* 
स्वप्न में किसी को अधबिलोया दही(= लौंका) मिल जाय या किसी अन्य को मथानी(दही बिलोने का पात्र) मिल जाय, जागने पर वह व्यक्ति समझ जाता है कि असत्य होने के कारण यह हमारे किस काम आयगा ! ॥१७॥
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*स्वप्नै मैं ब्राह्मण भयौ, स्वप्नै मैं शूद्रत्व ।*
*सुंदर जाग्यौ स्वप्न तें, नहिं तम रज नहिं सत्व१॥१८॥*
{१. इस छन्द से१९ तक एक पाद और दूसरे पाद में कहीं-कहीं प्रतीकूल या विपरीत वाक्य या वर्णन हैं, कहीं नहीं हैं । अनेक घटनाओं का वृत्तांत जैसा-जैसा मनुष्यों के अनुभवों में होता रहा या रहता है वैसा-वैसा लिखा है । संसार की वास्तविकता, स्वप्न के तद्वत्, प्रदर्शित की गई है । जैसे स्वप्न के अनुभूत पदार्थ जाग्रत् में झूठे प्रतीत होते हैं, वैसे ही इस संसार के पदार्थ सत्य ज्ञानोदय रूपी जाग्रत् अवस्था हो जाने पर मिथ्या भासते हैं । वह अवस्था केवल ज्ञानियों को ही प्रतीत होती है । प्रकृति में क्षरता(रूप का न ठहरना, अनित्यता) तो थोड़ा विचारने पर साधारणतया प्रगट ही है । परन्तु तात्विक अनुभव में सारा संसार ही त्रिकाल में आद्योपान्त अवस्तु, मिथ्या, भ्रम, झूठा प्रतीत होता है ।}
स्वप्न में कोई चाण्डाल ब्राह्मण बन जाय, या कोई ब्राह्मण अपने को चाण्डाल बना हुआ देखे । जागने पर मालूम पड़ता है कि वहाँ न कोई ब्राह्म हुआ, न चाण्डाल; क्योंकि स्वप्न तो मिथ्या होता है । उसमें जात्युत्पादक सत्त्व, रज, तम गुण कहाँ रहते हैं ! ॥१८॥ 
(क्रमशः)

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