卐 सत्यराम सा 卐
यहु वन हरिया देखकर, फूल्यो फिरै गँवार ।
दादू यहु मन मृगला, काल अहेड़ी लार ॥
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साभार ~ Chetna Kanchan Bhagat
प्रश्न: ओशो, आप विवाह का इतना मजाक क्यों उडाते हैं ?
नारायण, मालूम होता है तुम अनुभवी नहीं। पक्का है कि तुम विवाहित नहीं। विवाहित होते तो ऐसा प्रश्न न पूछते। और लगता है कहीं विवाहित होने की आकांक्षा है अभी। तुम्हारी मर्जी। समझदार दूसरों को देख कर समझ जाते हैं, नासमझ हजार बार गड्ढे में गिरते हैं, फिर भी नहीं समझते।
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चंदूलाल और ढब्यू जी एक ही साथ मरे, क्योंकि एक ही साइकिल पर सवार थे। और बस से टकरा गई साइकिल और गिर गई नाले में। चंदूलाल आगे बैठे थे, साइकिल चला रहे थे और डब्बू जी पीछे। सो चंदूलाल एक - दो मिनट पहले पहुंचे स्वर्ग के दरवाजे पर, ढब्यू जी भी भागते हुए एक - दो मिनट पीछे। ढब्यू जी ने सुन लिया जो हुआ। दरवाजा खुला और द्वारपाल ने पूछा चंदूलाल से - विवाहित या अविवाहित ? चंदूलाल ने कहा - विवाहित। द्वारपाल ने कहा : भीतर आ जाओ, नरक तुम भोग चुके। अब तुम्हें स्वर्ग मिलेगा।
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ढब्यू जी ने सुन लिया सब, चले आ रहे थे भागे पीछे - पीछे। फिर द्वार खुला जब ढब्यू जी ने दस्तक दी। द्वारपाल ने फिर पूछा विवाहित या अविवाहित ? ढब्यू जी ने कहा, चार बार विवाहित ! इस आशा में कि चंदूलाल को हराऊं। इस आशा में कि बच्चू को अगर मिला होगा पहले नंबर का स्वर्ग तो मुझे मिलेगा कम से कम चार मंजिल ऊपर। लेकिन द्वारपाल ने दरवाजा बंद कर लिया और उसने कहा कि दुखी लोगों के लिए तो यहां जगह है, पागलों के लिए नहीं। एक बार माफ किया जा सकता है कि भाई चलो, जानते नहीं थे, तो भूल हो गई। मगर चार बार !
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नारायण, विवाह मजाक ही हो गया है। सदियों - सदियों में ऐसा विकृत हुआ है...। सबसे सड़ी - गली संस्था अगर हमारे पास कोई है तो विवाह है। मगर हम ढोए चले जाते हैं। क्योंकि हममें साहस भी नहीं है कि हम कुछ नये प्रयोग कर सकें। हममें साहस भी नहीं है कि पुराने ढर्रे और रवैए से मुक्त हो सकें या विवाह को कोई नया रूप, कोई नया रंग दे सकें। पीटे जाते हैं लकीरें जो सदियों से पीटी गई हैं। हममें नया करने की क्षमता खो गई है। नये के लिए साहस चाहिए। और विवाह निश्चित ही मजाक हो गया है। क्योंकि आशाएं बड़ी और परिणाम बिलकुल विपरीत।
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विवाह से हम बड़ी आशाएं बंधाते हैं लोगों को और जितनी आशाएं बंधाते हैं उतना ही विषाद हाथ लगता है। हमने जिंदगी को एक लंबा धोखा बनाया है। बच्चों को कहते हैं कि पहले पढ़ - लिख जाओ, फिर सुख मिलेगा। फिर वे पढ़ - लिख गए, फिर उनसे कहते हैं, अब विवाहित हो जाओ तब सुख मिलेगा। फिर जब वे विवाहित होगए तो उनसे कहते हैं, अब धंधा करो, नौकरी करो, कमाओ, तब सुख मिलेगा। जब तक वे धंधा करते हैं, नौकरी करते हैं, कमाते हैं, तब तक जिंदगी हाथ से गुजर जाती है। उनके बच्चे उनसे पूछने लगते हैं कि सुख कब मिलेगा ? वे कहते हैं, पहले पढ़ो - लिखो तब सुख मिलेगा। फिर विवाह करो तब सुख मिलेगा। फिर नौकरी धंधा करो, कुछ कमाओ जगत में, कुछ यश - प्रतिष्ठा करो, तब सुख मिलेगा। बस यह सिलसिला जारी है। यहां कोई किसी से नहीं कहता कि न तो पढ़ने - लिखने से सुख का कोई संबंध है क्योंकि कभी - कभी गैर पढ़े - लिखो को मिल गया - यह रैदास को मिल गया !
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रैदास चमार ! कहते हैं कि रैदास चमार, मुझको मिल गया !
यह कबीर को मिल गया ! जो कहते हैं, मसि - कागद छुयो नहीं !
कभी कागज देख्या ही नहीं, स्याही जानी ही नहीं ! इनको मिल गया ! पढ़े - लिखे होने से कुछ सुख का संबंध नहीं है। मगर हम टालते हैं। यह बहाने हैं, हमारे कल पर टालो, अभी तो फिलहाल टालो, फिर कल की कल देखी जाएगी। और टालते ऐसी घड़ी आजाती है कि फिर टालने को कुछ बचता ही नहीं, मौत सामने खड़ी हो जाती है। तो फिर हम कहते हैं कि अब अगले जन्म में मिलेगा - या परलोक में। संसार में कहां सुख, परलोक में मिलता है ! तो भैया पहले ही क्यों नहीं कहा ?
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जब स्कूल धक्का दे - दे कर भेज रहे थे, तभी बता देते कि परलोक में मिलता है मगर टालना, स्थगित करते जाना...। और फिर एक घड़ी आ जाती है कि तुम्हें अपने बच्चों को जवाब देना पड़ता है। अब बच्चों के सामने यह कहना कि हमने जिंदगी यूं ही गवाई, हम कोरे के कोरे रहे, खाली आए खाली जा रहे है - तो अहंकार के विपरीत पड़ता है। तो बच्चों के सामने तो अकड़ बतानी पड़ती है कि अरे मैंने इतना पाया ! कि अरे मैंने यह कर दिखाया ! कि दुनिया को मैंने ऐसे चमत्कार दिखा दिए ! जो बच गए हैं, बेटा तू दिखलाना ! ऐसा यश - नाम मैंने कमाया !
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छोड़े जा रहा हूं याददाश्त। दुनिया से उठ जाऊंगा, सदियों तक जगह खाली रहेगी ! हालांकि दो दिन कोई याद करता नहीं, इधर तुम उठे कि जगह भरी। लोग तैयार ही बैठे हैं। लोग असल में प्रतीक्षा ही करते हैं कि भइया उठो, अब तुम काफी बैठ लिए, अब दूसरों को भी बैठने दो ! विवाह तो अत्यंत सड़ी - गली संस्था हो गया है। उसका कारण भी है, क्योंकि हमने विवाह को झुठला दिया है।
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