शनिवार, 18 मार्च 2017

= निष्कामी पतिव्रता का अंग =(८/८५-७)

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卐 सत्यराम सा 卐 
*श्री दादू अनुभव वाणी* टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
*= निष्कामी पतिव्रता का अँग ८ =*
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कछू न कीजे कामना, सहगुण निर्गुण होहि ।
पलट जीव तैं ब्रह्म गति, सब मिल मानें मोहि ॥८५॥
यदि मन बुद्धि इन्द्रियाँ अन्य कुछ भी साँसारिक कामना न करें और सब मिलकर निष्काम पतिव्रत द्वारा मुझ निर्गुण ब्रह्म की ही सत्ता स्वीकार करके मेरा ही चिन्तन करे तो यह सगुण जीव जीवत्व - भाव से बदल कर निर्गुण हो जाता है । फिर ब्रह्म में गति करता है=ब्रह्म रूप ही हो जाता है ।
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घट अजरावर ह्वै रहे, बन्धन नाहीं कोइ । 
मुक्ता चौरासी मिटे, दादू सँशय सोइ ॥८६॥ 
उक्त प्रकार निष्काम पतिव्रत रूप अनन्य भक्ति करने वालों का शरीर देवताओं से भी श्रेष्ठ हो जाता है और पूर्व अज्ञान काल में जो चौरासी लक्ष योनियों में भ्रमण कराने का हेतु जीव - ब्रह्म विषयक सँशय रहता है, वह भी नष्ट हो जाता है तथा कोई भी साँसारिक बन्धन बांधने वाला नहीं रहता, वह जीवन्मुक्त होकर विचरता है । 
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*परिचय पतिव्रत* 
सालोक्य संगति रहे, सामीप्य सन्मुख सोइ । 
सारूप्य सारीखा भया, सायुज्य एकै होइ ॥८७॥ 
८७ - ८८ में परिचय पूर्वक पतिव्रत दिखा रहे हैं - उपासना द्वारा प्राप्य चतुर्विध मुक्ति बता रहे हैं - उपास्य के लोक में रहना सालोक्य मुक्ति कहलाती है । उपास्य के समीप सन्मुख रहे, उसे ही सामीप्य मुक्ति कहते हैं । उपास्य के समान उपासक का रूप हो जाना ही सारूप्य मुक्ति कहलाती है । उपास्य से एक हो जाय उसे ही सायुज्य मुक्ति कहते हैं ।
(क्रमशः)

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