॥ दादूराम सत्यराम ॥
*श्री दादू चरितामृत(भाग-२)**
लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*= विन्दु ९३ =*
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तिलोकदास ममाणा वाले ने हाथ जोड़कर पूछा - भगवन् ! आप जिस ब्रह्म की बलिहारी जाते हैं, उसका स्वरूप कैसा है ? हमको भी समझाने की कृपा करें ? तब दादूजी बोले -
*= तिलोकदास के प्रश्न का उत्तर =*
"नूर१ नूर अव्वल२ आखिर३ नूर ।
दायम४, कायम५ कायम दायम,
हाजिर है भरपूर ॥ टेक ॥
आस्मान नूर जमीं नूर पाक परवरदिगार६ ।
आब७ बाद८ नूर, खूब खूबां यार ॥ १ ॥
जाहिर९ बातिन१० हाजिर नाजिर११,
दाना१२ तू दीवान१३ ।
अजब अजाइब१४ नूर दीदम१५, दादू है हैरान ॥ २ ॥
स्वस्वरूप१ ब्रह्म, सृष्टि के प्रथम२ मध्य और अन्त३ में सदा४ स्थिर५ है तथा वह स्थिर ब्रह्म सदा सबके पास और विश्व में पर्रिपूर्ण है । वही आकाश रूप, पृथ्वी रूप, पवित्र और पालन६ करने वाला है । वही जल७ रूप , वायु८ रूप और श्रेष्ठों से श्रेष्ठ है तथा सबका मित्र है । अन्तःकरण१० में स्थित रहकर देखने११ वाले, और जानने वाले१२ के रूप में प्रकाशित९ होता है । प्रभो ! आप ही बुद्धिमान१३ मन्त्री के समान सबको प्रेरणा रूप परामर्श देते हैं, आपको रचित वस्तुयें आश्चर्य१४ कारक हैं । आपका अद्भुत रूप देख१५ कर हम चकित हैं ।"
उक्त पद को सुनकर तिलोकदास आदि सभी भाई तथा उपस्थित सर्व श्रोतागण आश्चर्य चकित थे । दादूजी का उक्त पद सुनकर सबने दादूजी महाराज को प्रणाम करते हुये उनके ज्ञान को धन्यवाद दिया फिर राजा आदि राजभवन को चले गये । चौथे दिन उदयसिंह और सांवलदास अपने दोनों भाइयों के साथ नारायणसिंह दादूजी के दर्शन करने त्रिपोलिया पर गये और प्रणाम करके दादूजी महाराज के सन्मुख बैठ गये ।
*= उदयसिंह की प्रार्थना =*
थोड़ी देर के पश्चात् उदयसिंह ने प्रार्थना की - स्वामिन् ! कोई प्रभु संबंधी वार्ता सुनाइये ? तब दादूजी महाराज ने उनको यह पद सुनाया -
"कासौं कहूं हो अगम हरि बाता,
गगन धरणि दिवस नहीं राता ॥ टेक ॥
संग न साथी गुरु नहिं चेला,
आसन पास यूं रहै अकेला ॥ १ ॥
वेद न भेद न करत विचारा,
अबरण बरण सबन तैं न्यारा ॥ २ ॥
प्राण न पिंड रूप नहिं रेखा,
सोइ तत सार नैन बिन देखा ॥ ३ ॥
योग न भोग मोह नहिं माया,
दादू देख काल नहिं काया ॥ ४ ॥
प्रभु संबन्धी आश्चर्य दिखा रहे हैं - हे साधक ! उस हरि के स्वरूप संबंधी वार्ता किससे कहूँ ? वह अगम है सहज ही समझ में नहीं आती है । वे आकाश, पृथ्वी, दिन और रात्रि रूप नहीं हैं, उनके संग कोई साथी भी नहीं है, न उनके आसन के पास गुरु शिष्यादि ही हैं । इस प्रकार वे अद्वैतरूप से ही रहते हैं । न वहां वेद है न भेद विचार किया जाता है । वे बरण - अबरण आदि सभी दशाओं से अलग हैं । वे प्राण, पिंड और किसी प्रकार के रूप रेखादि से युक्त नहीं हैं । वे ही संसार के सार तत्त्व हैं । यह सब हमने बिना नेत्रों से स्वरूप स्थिति द्वारा देखा है । वहां योग, भोग, मोह, माया, काल, कालादि कुछ भी नहीं हैं । हे साधक ! तू भी स्वरूप स्थिति द्वारा देख ।" उक्त पद को सुनकर उदयसिंह आदि सभी सभासद प्रसन्न हुये ।
(क्रमशः)

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