बुधवार, 15 मार्च 2017

= १३० =

卐 सत्यराम सा 卐
दादू मुख की ना गहै, हिरदै की हरि लेइ ।
अन्तर सूधा एक सौं, तो बोल्याँ दोष न देइ ॥ 
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साभार ~ Rajnish Gupta

((((( भक्त किरात और नंदी वैश्य )))))
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प्राचीन समय में काशी के समीप एक नगरी थी जो जंगलों से घिरी हुई थी । इसी नगरी में नंदी नाम के एक धनिक वैश्य रहते थे । वे धर्म-कर्म में विश्वास करते थे और श्रद्धा भक्ति भाव से भगवान का चिंतन करते थे ।
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उनका नियम था कि वे जंगल के मंदिर में प्रतिदिन पूजा करने जाते थे । दान करते गरीबों की सहायता करते । 
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एक दिन की बात है । एक शिकारी उस मंदिर के समीप से गुजर रहा था । दोपहर की धूप तन जला रही थी । मंदिर के प्रांगण में छायादार वृक्ष और स्वच्छ सरोवर देखकर वह वहीं ठहर गया तभी उसकी दृष्टि भगवान की मूर्ति पर पड़ी तो एकटक वह उस दिव्य स्वरूप में खो गया ।
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जाने कहां से उसके अंतर्मन में प्रेरणा हुई कि वह भगवान की पूजा करे । वह उठा और वहीं एक बिल्वपत्र पड़ा था उठा लिया और अंदर पहुंचा । बिल्वपत्र को वहीं रखकर वह सरोवर में से अंजली भर पानी लाया । पानी से स्नान कराकर उसने बिल्वपत्र चढ़ा दिया फिर अपनी बुद्धि के अनुसार अपनी हथेली दांतों से काटकर रक्त चढ़ा दिया ।
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पूजा से निवृत्त होकर वह पेड़ के नीचे लेटा तो उसे भूख-प्यास नहीं लग रही थी जबकि वह सुबह का भूखा था । इसे भगवान का ही चमत्कार समझकर उसने रोज वहां आकर पूजा करने का निश्चय किया । 
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दूसरे दिन प्रात: काल नंदी वैश्य पूजा करने आए । मंदिर में सड़ा हुआ बिल्वपत्र और खून के छींटे देखकर वह अवाक रह गए । “यह अमंगलकारी कार्य किसने किया । ऐसा भ्रष्ट विघ्न पहले तो कभी नहीं हुआ । अवश्य मेरी पूजा में कोई त्रुटि रह गई है ।” ऐसा सोचकर उन्होंने मंदिर को धो-पोंछकर स्वच्छ किया और अपनी पूजा की ।
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तत्पश्चात घर लौटकर अपने पुरोहित को यह सब बताया। “अवश्य कोई दुष्ट जगंली होगा । कल मैं स्वंय चलूगा और उसे डांटूगा कि ऐसा अनर्थ करने से महादेव रुष्ट हो जाएंगे ।” पुरोहित ने कहा । अगले दिन दोनों पूजा सामग्री लेकर मंदिर पहुंचे ।
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वहां कल जैसी ही स्थिति आज भी थी । नन्दी वैश्य और पुरोहित ने मंदिर को फिर साफ किया और शिव के महामंत्र का जाप किया । वेदमंत्रों की धुन से आस- पास का वातावरण गूंज उठा परतु दोनों की दृष्टि मंदिर आने वाले मार्ग पर लगी थी । और शिकारी दोपहर के समय आ गया । शिकारी की भयंकर आकृति देखकर दोनों भयभीत हो गए । 
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ऐसे खूँखार मानव से जो राक्षस सदृश्य लग रहा था डर जाना स्वाभाविक था। दोनों ही भगवान रुद्र की विशाल मूर्ति के पीछे जा छिपे । और उनकी आँखों के समक्ष ही उस जगंली ने उनकी पूजा नष्ट-भ्रष्ट कर दी । 
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अपनी पूजा शुरू की। जल से स्नान कराया और बिल्वपत्र चढ़ाकर अपनी घायल हथेली में पुन: चाकू मारा तो रक्त के साथ मांस भी निकल पड़ा। दोनों चीजें पूर्ण भाव से प्रभु को अर्पित कर दीं फिर साष्टांग दंडवत करके चला गया । 
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“महाराज ! यह तो कोई राक्षस है ।” नंदी वैश्य बोले : “इसे तो किसी ज्ञान प्रलोभन या भय से नहीं रोका जा सकता | ऐसी चेष्टा भी करते हैं तो यह निर्दयी जीवित न छोड़ेगा ।”
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“सत्य कह रहे हैं आप ! यह मूर्ख है ।” “तो क्या करें ? भगवान को यूं ही अपवित्र होने के लिए छोड़ दें ?” “नहीं । इस समस्या का एक ही उपचार है । मूर्ति को यहां से ले चलो और अपने घर में स्थापित करो ।” दोनों ने यही निर्णय किया और घर लौट आए । 
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नंदी वैश्य ने आधा दर्जन मजदूर लिए और बैलगाड़ी में बैठकर मंदिर जा पहुंचा । “एक दुष्ट जगंली मंदिर को अपवित्र करता है । समझाने पर भी नहीं मानता इसलिए मूर्ति को घर ले चलो ।” नंदी ने अपने मजदूरों से कहा । .
तत्काल मूर्ति को उखाड़ लिया गया और बैलगाड़ी में लादकर नगर में लाया गया । नंदी वैश्य ने पूर्ण विधि-विधान से मूर्ति को वेद मंत्रोच्चार के साथ अपने घर में स्थापित किया । रात-भर मूर्ति के समक्ष भजन-कीर्तन होता रहा ।
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दूसरे दिन शिकारी (किरात) अपने निर्धारित समय पर पूजा करने पहुंचा तो मूर्ति को वहा न देखकर सन्न रह गया । “ऐं ! भगवान कहाँ गए ? लगता है कि कहीं छुप गए।” शिकारी ने मंदिर का कोना-कोना छान मारा ।
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भगवान वहां कहीं भी न थे । वह वहीं बैठकर जोर-जोर से रोने लगा । “हे शम्भो !” वह भाव-विह्वल होकर रोने लगा: “मुझे क्यों त्याग दिया भगवन् ! मुझसे क्या भूल हो गई जो आप इस तरह मुझे छोड़कर चले गए ? मैंने तो कोई अपराध नहीं किया । यदि भूलवश कोई अपराध हो भी गया है तो मुझे क्षमा कर दो प्रभु ! मैं आपकी पूजा के लिए व्याकुल हूँ ।” भगवान वहां होते तब तो उत्तर देते ? 
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शिकारी ने उस मूर्तिस्थल को ही भगवान की संज्ञा दी और अपनी पूजा प्रारम्भ कर दी । “हे जगन्नाथ ! बिना आराध्य के कैसी पूजा ? परंतु मैं विवश हूं । मेरा आवेग नहीं रुकता । मेरी यह पूजा स्वीकार करो और तत्पश्चात मैं अपने प्राण त्याग दूंगा क्योंकि बिना स्वामी के दास कैसे जीवित रह सकता है?
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उसने बिल्वपत्र और जल चढ़ाकर अपने हाथ से मांस काटकर रक्त सहित उसी स्थान पर समर्पित कर दिया जहाँ पहले मूर्ति थी । फिर सरोवर में स्नान करके अखंड ध्यान में बैठ गया । 
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उसके हृदय में कोई कामना नहीं रही थी । दिन-प्रतिदिन उसका ध्यान सघन हो रहा था । उसके हृदय में ‘ॐ-ॐ’ की धुन प्रतिध्वनित हो रही थी ।
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किरात की कठिन साधना स्वास से विरत होकर प्राण में पहुंच गई थी । कैलाश वासी महादेव अपनी समाधि में लीन थे । जब भक्त की प्राणयुक्त पुकार उनके मर्म से टकराई तो भगवान भोलेनाथ ने समाधि छोड़ दी और दिव्य दृष्टि से चंहु ओर देखा ।
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किरात को निष्काम भक्ति करते देखा तो दौड़े उसके समक्ष पहुंचे । “वत्स ! आखें खोलो । मैं तुम्हारे समक्ष हूं । तुम्हारे कठिन तप और भक्ति भाव से मैं अति प्रसन्न हूं । तुम अपनी अभिलाषा व्यक्त करो ।” भगवान रुद्र ने प्रेम पूर्वक कहा ।
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किरात ने आखें खोलीं तो समक्ष अपने आराध्य की देखा । “भगवान !” वह विह्वल होकर उनके चरणो से लिपट गया: “आपने दर्शन देकर मुझे कृतार्थ किया । मैं सिर्फ इतनी अभिलाषा रखता हूँ कि मैं सदैव आपके ध्यान-भक्ति और सेवा में निरत रहूं ।” 
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“तथास्तु ! आज से तुम मेरे पार्षद हुए । मैं तुम्हें अपनी सेवा में लेता हूं ।” किरात प्रसन्नता से नाच उठा । उसकी यह दशा देखकर भोले भंडारी भी डमरू बजाने लगे और सुंदर नृत्य कर उठे ।
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उनका डमरू बजा तो देवी-देवताओं ने भी अन्य वाद्ययंत्रों से उस आनन्दपूर्ण स्थिति का आनंद बढ़ा दिया । तीनों लोकों में ‘ओम-ओम’ की प्रतिध्वनि हो रही थी । शंख मृदंग ढोलक इत्यादि की सुरीली लय से सर्वत्र आनंद उमड़ उठा । शिव भक्तों में तो जैसे आनंद की बाढ़ आ गई । चंहु ओर ‘बम भोले’ गुंजायमान हो रहा था । 
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नंदी वैश्य भी अपने घर में बैठे थे । जब उन्होंने सुना कि जंगल वाले मंदिर पर स्वयं देवाधिदेव डमरू बजाकर नृत्य कर रहे हैं तो वह नंगे पांवों ही दौड़ते चले गए ।
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मंदिर पर अपार भीड़ एकत्र थी । कितना विहंगम दृश्य था ! नंदी वैश्य ने किरात को भगवान् शंकर के साथ नृत्य करते देखा तो उन्हें आश्चर्य के साथ किरात के प्रति अपने पूर्व विचारों पर क्षोभ हुआ । 
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“मैं कितना अधम हूं, जो भगवान के प्यारे भक्त को अपशब्द कहता था । मैंने ही उसे उसके आराध्य की पूजा न करने देने का निष्फल प्रयास किया ।”
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नंदी वैश्य दौड़कर किरात के चरणों से लिपट गए । “हे महात्मन ! मेरा अपराध क्षमा करो । मैंने ही भगवान की मूर्ति ले जाने का अपराध किया । मैं अधम हूं । मुझे क्षमा करो ।” 
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”उठो मेरे प्रेरक !” किरात ने नंदी को उठाया: “तुम्हारी ही कृपा से तो मुझ जैसे अबुद्धि को भगवान के साक्षात दर्शन हुए । मैं तुम्हारा ऋणी हूं ।” 
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“तुम महान हो भक्त ! तुम्हारी भक्ति श्रेष्ठ है । अब तुम ही मेरा उद्धार कर सकते हो । मैं तुम्हारी शरण में हूं ।” 
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किरात ने उन्हें भोलेनाथ के समक्ष प्रस्तुत किया । “हे महाकाल !” 
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भोलेनाथ ने कहा : “यह कौन है ! मैं इसे नहीं पहचानता ।” 
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“नाथ ! यह आपके परमभक्त हैं । प्रति दिन आपकी पूजा करते हैं ।” 
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“मुझे स्मरण नहीं । मुझे तो केवल तुम ही याद ही । तुम ही मेरे प्रेमी हो । मैं तो उनका मित्र हूं जो निष्काम हृदय से मेरा सुमिरन करते है ।” 
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“हे जगतपिता ! मैं आपका भक्त हूं और आप मेरे गुरु हैं मित्र हैं । आपने मुझे स्वीकार किया। इन्हें भी स्वीकार कीजिए ।” 
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भक्त की इच्छा भगवान पूर्ण न करें ? भक्त किरात ने नंदी को स्वीकार किया तो भगवान जगन्नाथ कैसे अस्वीकार करते ? 
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“तथास्तु !” महादेव ने कहा । नंदी वैश्य प्रसन्नता से प्रभु के चरणों में गिर गए । यही किरात और नंदी वैश्य भगवान के गण नंदी और महाकाल के नाम से प्रसिद्ध हुए ।
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(((((((((( जय जय श्री राधे ))))))))))
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