रविवार, 19 मार्च 2017

= निष्कामी पतिव्रता का अंग =(८/८८-९०)


#daduji
卐 सत्यराम सा 卐 
*श्री दादू अनुभव वाणी* टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
*= निष्कामी पतिव्रता का अँग ८ =* 
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राम रसिक बांछे नहीं, परम पदारथ चार । 
अठ सिधि नव निधि का करे, राता सिरजनहार ॥८८॥ 
निरँजनराम के दर्शन - रस के रसिक सन्त ८७ में बताई हुई चार मुक्ति रूप परम पदार्थों की भी इच्छा नहीं करते, फिर अष्ट सिद्धि और नवनिधियों को तो वे करें ही क्या ? इस प्रकार परिचय पूर्वक पतिव्रत युक्त भक्त पूर्णत: निष्काम होकर एक परमेश्वर में ही रत रहते हैं । अष्ट सिद्धि, नवनिधि अँग २ - १०४ में देखो । 
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*अन्य लग्न व्यभिचार*
स्वारथ सेवा कीजिये, तातैं भला न होइ । 
दादू ऊसर बाहिकर, कोठा भरे न कोइ ॥८९॥ 
८९ - ९२ में स्वार्थ सिद्धि के लिए प्रेम करना व्यभिचार ही है - जैसे ऊसर पृथ्वी में बीज डाल कर उससे उत्पन्न धान्य से कोई भी मकान नहीं भर सकता । वैसे ही सकामी स्वार्थ सिद्धि के लिए सेवा करता है, तब उससे आत्म - कल्याण रूप भला नहीं होता, स्वार्थ ही सिद्ध होता है । 
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सुत वित१ माँगे बावरे, साहिब - सी निधि मेलि । 
दादू वे निर्फल गये, जैसे नागर बेलि ॥९०॥ 
निरंजन राम जैसी अपूर्व सम्पत्ति को त्याग कर जो मूर्ख लोग अपने साधन का फल पुत्र और कनकादिक धन१ ही माँगते हैं, वे लोग जैसे नागर - बेलि फल से वँचित रहती है, वैसे ही आत्म - ज्ञान फल से वँचित रहकर लौकिक अभिलाषा पूर्ति में ही अपना जीवन खो देते हैं ।
(क्रमशः)

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